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________________ PM IAS पत दिया है। उन्होंने बोधिसत्त्व का उदाहरण देते हुए विजय ने टीका की रचना की, जो प्रस्तुत कृति में बताया है कि वे कामपाती होते हैं, चित्तपाती नहीं अति संक्षेप में प्रतिपादित विषयों के स्पष्टीकरण होते । क्योंकि उत्तम आशय-भाव या अभिप्राय के की दृष्टि से बहत उपयोगी है। कारण उनकी भावना-चित्त-स्थिति शुद्ध होती योगविंशिका की प्रयम गाथा में लेखक ने आत्मा का मोक्ष से योजन रूप योग का लक्षण बतलाकर यहाँ कहने का आशय यह है कि जब तक देह उसके भेदों की ओर इंगित किया है। in है, कर्म का सर्वथा निरोध नहीं हो सकता, किन्तु दूसरी गाथा में उन्होंने योग के भेदों का विश्ले मन या भावना का परिष्कार हो सकता है, जिसके षण करते हुए कहा हैलिये साधक सतत् सप्रयत्न, सचेष्ट रहे, वहाँ विकार ठाणुन्नत्थालंबणरहिओ तन्तम्मि पंचहा एसो। न आने पाये। दुगमित्थकम्मजोगो तहा तियं नाणजोगो उ ।।२।। इस प्रकार आ० हरिभद्रसूरि ने प्रस्तुत ग्रन्थ के तन्त्र में-योगप्रधान शास्त्र में स्थान, ऊर्ण,अर्थ, 500 केवल १०१ श्लोकमय छोटे से कलेवर में योग के आलम्बन तथा अनावलम्बन-योग के पाँच भेद ||5 सन्दर्भ में बोधात्मक, तुलनात्मक दृष्टि से इतना कुछ बताये हैं । इनमें पहले दो-स्थान और ऊर्ण को कह दिया है, जो साधना की यात्रा कर्मयोग तथा उनके पश्चाद्वर्ती तीन-अर्थ, आलयोगी के लिए एक दिव्य पाथेय सिद्ध हो म्बन तथा अनावलम्बन को ज्ञानयोग कहा गया है। योगविशिका स्थान-स्थान का अर्थ स्थित होना है। योग में आसन शब्द जिस अर्थ में प्रचलित है, यहाँ स्थान ___ आचार्य हरिभद्रसूरि की प्राकृत में योग पर शब्द उसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। दूसरी कृति योगविशिका है। __ वास्तव में आसन के लिए स्थान शब्द का प्रयोग 3 भारतीय वाङमय में बीस-बीस, तीस-तीस विशेष संगत तथा युक्तिपूर्ण है। आसन का अर्थ I R) आदि पद्यों की पुस्तकात्मक रचनाओं का एक विशेष बैठना है । सब आसन बैठकर नहीं किये जाते । र क्रम रहा है । बौद्ध जगत् के सुप्रसिद्ध लेखक वसु- कुछ आसन बैठकर, कुछ सोकर तथा कुछ खड़े होकर || बन्धू ने विशिका-त्रिशिका के रूप में पुस्तक-रचना किए जाते हैं। देह की विभिन्न स्थितियों में अवकी, जिनमें उन्होंने विज्ञानवाद का विवेचन किया। स्थित होना स्थान शब्द से अधिक स्पष्ट होता है। किसी विषय को समग्रतया बहुत ही संक्षेप में ऊर्ण योगाभ्यास के सन्दर्भ में प्रत्येक क्रिया के या व्याख्यात करने की दृष्टि से विशिकाओं की पद्धति साथ जो सूत्र-संक्षिप्त शब्द - समवाय का उच्चा को उपयोगी माना गया । आ० हरिभद्र ने इसी रण किया जाता है, उसे ऊर्ण कहा जाता है । प्राचीन शैली के अनुरूप बीस विशिकाओं की रचना ऊर्ण को एक अपेक्षा से पातंजल योग-सम्मत की। वे सब प्राकृत भाषा में हैं। उनमें १७वों विशिका जप-स्थानीय' माना जा सकता है। योगविशिका है। इसमें आर्या छन्द का प्रयोग हुआ अर्थ-शब्द-समवाय-गभित अर्थ के अवबोध है। रचनाकार ने केवल बीस गाथाओं में योग के का व्यवसाय-प्रयत्न यहाँ अर्थ शब्द से अभिहित सारभूत तत्त्वों को उपस्थित करने का प्रस्तुत पुस्तक हुआ है। PL में जो विद्वत्तापूर्ण प्रयत्न किया है, वह गागर में आलम्बन-ध्यान में बाह्य प्रतीक आदि का सागर संजोने जैसा है। इस पर उपाध्याय यशो- आधार आलम्बन है । १. योगसूत्र १.२८ । ४३३ पचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास 40 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Balducation International Nr Private & Personal. Use Only www.jaintierary.org
SR No.210201
Book TitleHaribhadra ke Prakrit yoga Grantho ka Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherZ_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf
Publication Year1990
Total Pages12
LanguageHindi
ClassificationArticle & Yoga
File Size2 MB
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