Book Title: Haribhadra ke Prakrit yoga Grantho ka Mulyankan
Author(s): Chhaganlal Shastri
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf

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Page 11
________________ 327 हेमचन्द्र के योगशास्त्र, शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव आ० हरिभद्र के अनुसार जो पुरुष पूर्वोक्त रूप तथा भास्करनन्दी के ध्यानस्तव आदि में में योगाभिरत है, उसका अनुष्ठान सदनुष्ठान कहा वर्णित पिण्डस्थ, पदस्थ एवं रूपस्थ ध्यान से यह जाता है। तुलनीय है। सदनुष्ठान को उन्होंने चार प्रकार का बतलाया अनालम्बन-ध्यान में रूपात्मक पदार्थों का है-१. प्रीति-अनुष्ठान, २, भक्ति-अनुष्ठान, ३. सहारा न लेना अनावलम्बन कहा गया है। योग- आगमानुष्ठान तथा ४. असंगानुष्ठान । शास्त्र', ज्ञानार्णव तथा ध्यानस्तव में वर्णित रूपा- योग के पूर्वोक्त बीस भेदों में से प्रत्येक के ये तीत ध्यान से इसकी तुलना की जा सकती है। चार-चार भेद और होते हैं। इस प्रकार उसके आ० हरिभद्र ने योग के इन पाँच भेदों में से अस्सी भेद हो जाते हैं। प्रत्येक के इच्छा, प्रवृत्ति, स्थिरता एवं सिद्धि के रूप योगाभ्यास के सन्दर्भ में आ० हरिभद्र द्वारा में चार चार भेद और किये हैं । यों योग के बोस किये गये योग के ये भेद साधक को योगसाधना की का भेद हो जाते हैं। सूक्ष्मता में जाने की प्रेरणा प्रदान करते हैं । इनका इनकी व्याख्या करते हुए उन्होंने बताया है कि सूक्ष्मता से संस्पर्श कर साधक अपने में आत्म-स्फूर्ति योगाराधक सत्पुरुषों-योगियों की चर्चा में प्रीति, का अनुभव करता है । फलतः वह योग के मार्ग पर स्पृहा, उत्कण्ठा का होना इच्छायोग है। उत्तरोत्तर, अधिकाधिक प्रगति करता जाता है। नवाभ्यासी के मन में ऐसी स्पृहा का उदित योगविशिका में गाथा १० से १४ तक आ० होना उसके उज्ज्वल भविष्य का सूचन है। हरिभद्र ने योग के परिप्रेक्ष्य में चैत्य-वन्दन के सम्बन्ध में चर्चा की है, जिसका योग से कोई सीधा प्रवृत्तिउपशम भावपूर्वक योग का यथार्थ रूप में पालन सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता। प्रवृत्ति-योग है। वे चैत्यवन्दन सत्र की सार्थकता अर्थयोग और स्थिरता आलम्बन योग को साध लेने से ही मानते हैं । अर्थ____ आत्मबल द्वारा, बाधा-जनक स्थितियों की योग सम्यक् अर्थ के अवबोध की दिशा में चिन्तन परक उपक्रम है और आलम्बन योग प्रतीक-विशेष C चिन्ता से अतीत होकर सुस्थिर रूप से योग का प्रतिपालन स्थिरतायोग है। के सहारे ध्यान-प्रक्रिया। ___अर्थ और आलम्बन योग जहाँ सिद्ध हो जाते सिद्धि हैं, वहाँ चैत्यवन्दन साक्षात् मोक्ष-हेतु से जुड़ जाता साधक जब उपर्युक्त पंचविध योग साध चुकता है। है, तब वह न केवल स्वयं ही आत्म-शान्ति का अनु- जहाँ स्थान एवं ऊर्ण योग ही सिद्ध होते हैं, अर्थ भव करता है, वरन् जो भी उस योगी के सम्पर्क में एवं आलम्बन नहीं, वहाँ चैत्य-वन्दन मोक्ष का आते हैं, सहज रूप में उससे उत्प्रेरित होते हैं। साक्षात् हेतु तो नहीं बनता, परम्परा से वह मोक्ष योगी की उस स्थिति को सिद्धियोग कहा जाता है। हेतु होता है। आगे उन्होंने लिखा है - . १. योगशास्त्र, प्रकाश ७-६ । ३. ध्यानस्तव २४-३१ । ५. ज्ञानार्णव सर्ग ४० । २. ज्ञानार्णव सर्ग ३७-३६ । ४. योगशास्त्र १०.५ । ६. ध्यानस्तव ३२-३६ । ४३४ 6. पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Pivate & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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