Book Title: Gyanpramodika
Author(s): Gyanpramod Gani, R S Betai, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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Description: Thick country paper; two vertical red lines on both sides of writing; also
red vertical ends of the folios; very clear, legible thoroughly smooth writing; has several corrections; affected by moths at very few places; in very good condition and on firm shining paper; perhaps it imitates old style of writing.
Age: V.S. 1843.
Copyist : Gunacandrarsi, who copied it for self-study.
Begins: श्री नाभेयाय नमः ।
Ends Colophon of fifth Pariccheda
इति बृहत्खरतरगच्छे भट्टारकप्रभुश्री जिनराजसूरिविजयिराज्ये श्रीसागरचन्द्रमूरिसन्ताने पट्टानुक्रम संजात. श्रीमद्वचनाचार्य रत्नधी रगणिप्रवर विनेय वाचनाचार्यज्ञानप्रमोदगणिविनिर्मितायां श्राग्भटालङ्कारखुतौ पम्चमः परिच्छेदः ॥ श्रीरस्तु |
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व्याख्यातमस्मिन् यदसङ्गतं तत ग्रन्थे विशोध्यं विबुधेर्महद्भिः । मयि प्रसय ह्यपरस्य दोषगुणामलज्ञानधियो परिष्टः ॥ १॥
विधाय टीकां यदिमां सुपुण्यं समर्जितं वाङ्मयका हितेन । सिद्धिं लभन्तामचिरेण सम्यक् भव्या विधूताखिलकर्मसङ्गाः ||२|| चन्द्रकुल विपुल वियदिन्दुमुख्य उद्योतनाभिधः सूरिः । आसीत्पट्टाधिपगणमुच्छ्रीवर्धमानगुरुः ||३||
तत्पदपदमा हर्मणिरभूज्जिनेश्वर ज्ञानसुखिर: । खरतरगणस्य सुमहिमकारी जिनचन्द्रसूरिश्व ||४|| श्रीरभयदेवसूरिर्नव। ङ्गवत्युत्करस्य निर्माता । श्री जिनवल्लभसूरिर्युगाद्वरो जैनदत्तगुरुः ||५|| पट्टानुक्रमभूता जिनादुदयराजभद्रसूरीशाः । श्रीजिनपूर्वश्चन्द्रः समुद्रहंसौ जिनाल्लक्ष्म्य ||६| श्रीजिनमाणिक्यगुरुर्युगप्रधान जिनचन्द्रमुनिनाथः युगवरजिनसिंहाः खरतरगच्छत्रिये चासीत् ॥७॥ तत्पट्टो दयभूधरा रुणवरो भव्याम्बुजोद्बोधकः प्रोद्यच्छ्रीजिनराज सूरिगुणभृद् भट्टारकोच्चीपतिः । अल्पीय: पदिनां प्रसन्ननयनस्तूच्चैः पदारोपको बोहित्थान्वयशेखरो विजयतां स्फूर्जत प्रतापावलिः ॥८॥
सुरिश्रीजिनरराजसागरपरिवृतजिनराजविजयिनि सुराज्ये । प्रथमोदित जिनराज गुरुघृतभुवनरत्नसूरिपदः ||९॥
तदीयपरकैरवपार्वणेन्दुः साधुप्रभुः सागरचन्द्रसूरिः । संविग्नशिष्याव लिलब्वरेखा तन्नामधेयोऽभवदुरुशाखः ||१०||
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