Book Title: Gyan Atma ka Gun bhi Swarup bhi
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Lekhendrashekharvijayji_Abhinandan_Granth_012037.pdf

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Page 7
________________ के नव उल्लास और अनन्त आनन्द की हृदय में अनुभूति होगी। विचारो में कषाय की उष्णता बनी रहे, विकारों का दावानल जलता रहे और आशा लगाये बैठा रहें आनन्द मिलने की, तो वह कैसे मिलेगा? दावानल पर आसन लगाकर बैठे है और कहो ताप लग रहा है? जब नीचे धांय-धांय करती हुई आग जल रही है, तो उसकी गर्मी तो लगेगी ही। एक सज्जन कह रहे थे "अब कषायों पर विजय प्राप्त करने का बहुत ही सरल तरीका निकल गया है। शरीर-विज्ञान ने यह पता लगाया है, कि मनुष्य के शरीर की रक्तवाहिनी नाड़ीयों एवं नसों के साथ कुछ इस प्रकार की नसें है, जिनसे क्रोध करने, झुठ बोलने एवं अभिमान करने के भाव जागृत होते है। यदि इन नसों को काट दिया जाए, ऑपरेशन कर दिया जाए, तो फिर क्रोध आदि भाव जाग्रत ही नहीं होंगे।" मैंने कहा उनसे-इस प्रकार के ऑपरेशन की शान्ति हमें नहीं चाहीए। मनुष्य किसी बौध्धिक कमी के कारण, शारीरिक दुर्बलता एवं अशक्ति के कारण या किसी नशे, इंजेक्शन या दवा आदि के कारण यदि शान्ति अनुभव करता है, तो वह शान्ति नहीं है, उसमें आनन्द की अनुभूति नहीं है। शान्ति का अर्थ है किसी भी तरह के वातावरण में रहने पर भी मन में शान्ति का भाव बना रहे, विचारों में शान्ति का प्रवाह प्रवहमान रहे, ऐसी शान्ति हमें चाहीए। धर्म तो वह है, जो अपनी गति से चलता रहे। कषाय आदि पर हम धर्म के विचार से, ज्ञान और चिन्तन के सहारे से नियन्त्रण पा लेते है, उसे शान्त अन्तर् - मन के मन में समाधान पाते है, तो हमारे ज्ञान की विजय है, हमारी समता का पराक्रम है। राग और विराग की लड़ाई में यदि राग पर विजय हो जाती है, तो उसमें आनन्द है, उल्लास है। अभाव और दुर्बलता के कारण, जो शान्ति मिलती है, वह शान्ति नहीं, पराजय है। उसमें हीनता और क्षुद्रता का विचार जन्म लेता है। बाहर में शान्ति दिखाई देती है, पर मन में घुटन बनी रहती है, क्षोभ और व्याकुलता करवट लेती रहती है। धर्म और दर्शन ऐसी शान्ति की बात नहीं करता, वह कषाय पर अध्यात्म और ज्ञान के द्वारा विजय पाने की बात करता है। राग को जब विराग से जीता जाता है, तब वह साधना है, मुक्ति की। हम उसी की बात करते है। वह मुक्ति कोई प्रदेश और वेश पर आधारित नहीं है, किन्तु वह आत्मा की विशुद्ध दशा है। वह स्थान नहीं, स्थिति है। उस स्थिति का वर्णन करते हुए कहा गया है "यस्य स्थिरा भवेत् प्रज्ञा, यस्यानन्दो निरन्तरः । प्रपंचो विस्मृतप्राय: स जीवनमुक्त उच्यते॥" जिसकी प्रज्ञा–मन और बुद्धि स्थिर हो जाती है, आत्मभाव में लीन हो जाती है, आनन्द की धाराएँ निरन्तर प्रवाहित होती रहती है, अखण्ड आनन्द की अनुभूतियाँ उसके हर श्वासोच्छवास में उछवासित होती रहती है और आत्मा बाहर के प्रपंच में, बाल विकारो की हलचल में विस्मृत-प्राय अवस्था में पहुँच जाता है, इन्द्रियाँ के होते हुए भी इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किए गए सुख-दुख के संवेदन आत्मा को उद्वेलित नहीं कर सकते, संसार की वेदनाएँ पीडीत नहीं कर सकती-आत्मा की यह स्थिति जीवन मुक्त की स्थिति है। देह होते हुए भी उसकी उसके बन्धनों से मुक्त अवस्था होती है। गीता की भाषा में इसे स्थिति-प्रज्ञ कहा गया है। जीवन मुक्त की भी यही स्थिति है, जो स्थित-प्रज्ञ की है। जब ज्ञान और वैराग्य के द्वारा वृतियों और इच्छाएँ नियंत्रित हो जाती है, मन आत्म-भाव से बाहर नहीं भटकता, तब 'देहछतां देहातीत' अवस्था प्राप्त हो जाती है। साधना की यह मृत्यु के समय संत के दर्शन, संत का उपदेश और संघ का सानिध्य तो परम् औषधि रुप होता है। १९३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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