Book Title: Gyan Atma ka Gun bhi Swarup bhi Author(s): Amarmuni Publisher: Z_Lekhendrashekharvijayji_Abhinandan_Granth_012037.pdf View full book textPage 8
________________ चरम विकसित अवस्था है, जीवन में कुछ क्षण के लिए भी यदि इस अवस्था की अनुभूति की जा सके, तो वह साधना के आनन्द की सची रसानुभूति होगी। साधना की अनुभूति : कुछ साधकों की मन: स्थिति से मेरा परिचय हुआ है। जिनकी चालीस-पच्चास वर्ष की साधना रही है। कहना चाहीए, कि पच्चास वर्ष से वे साधना के मार्ग पर चल रहे है, वे जब मुझ से पुछते है-'महाराज पता नहीं लगा, कि हम भव्य भी है या नहीं? साधना तो करते चले आ रहे है, संयमपाल रहे है, पर अभी सम्यक्-दर्शन तो दूर, भव्य-अभव्य का प्रश्न ही मन में अटक रहा है। मैं सोचता हूँ, कि इस साधना का मूल्य क्या है ? एम.ए. का विद्यार्थी कहे, कि मैं A B C D नहीं जानता, मुझे A B C D , अ, आ, इ, ई, अथवा क, ख, ग सिखा दिजीए, तो यह कैसी विचित्र बात है? क्या यह संसार को धोखा ही देते रहे है? इतनी लम्बी साधनाओं के बाद भी यह अनुभूति नहीं हुई, कि हम भव्य है, या अभव्य? यह यक्ष प्रश्न अब भी मन में खड़ा हुआ है, कि हम सम्यक्-दृष्टि है या नहीं? मै पूछता हुँ, साधना करके क्या भार ढोया ? बारह वर्ष दिल्ली में रह कर क्या भाड़ झोंकी? बाईस वर्ष वाशिंगटन में बिताकर भी जूठी कप-प्लेटें साफ करते रहे? इतनी कठोर साधना करने पर भी नहीं पहचान पाए! दूसरा व्यक्ति भव्य है, या नहीं, सम्यक्-दृष्टि है या नहीं, इसका निर्णय हम नहीं दे सकते। यह केवलज्ञानी से, सर्वज्ञ से पूछने जैसी बात है। पर हम, भव्य हैं या अभव्य, सम्यक्-दृष्टि हैं, या मिथ्यादृष्टियह बात तो किसी से पूछने की आवश्यकता ही नहीं, आपकी आत्मा स्वयं ही इसका निर्णय दे सकती है। कुछ बुदे साधु या श्रावक कहा करते है–श्रीमन्धर स्वामी के पास चलें तो पूछे, हम भव्य है या नहीं, सम्यक्-दर्शन की स्पर्शना हुई या नहीं? पर वे यह नहीं सोचते, कि श्रीमन्धर स्वामी आखिर वाणी से ही कहेंगे, वे भी तो जो तुम्हारी आत्मा की स्थिति है, वही स्पष्ट कर सकेंगे। हमारे सामने भगवान महावीर की वाणी विद्यमान है। हजार श्रीमन्धर स्वामी भी आ जाएँ, तब भी वे वाणी से ही कहेंगे। उनके दर्शन हो जाए तो बहुत अच्छी बात है, पर जहाँ तक यह पूछने का सवाल है, वे भी वाणी से ही कहेंगे। जो बात वाणी द्वारा समझने की है, वह भगवान महावीर की वाणी से भी हम समझ सकते है। यदि वाणी पर विश्वास नहीं है, तो फिर श्रीमन्धर स्वामी से पूछ लेने से क्या होगा? वाणी पर जिसे विश्वास नहीं, उसे शरीर पर कैसे विश्वास होगा। स्थिति यह है, कि आप लड्डु खा रहे है, और दूसरों से पूछ रहे है, कि भाई! इस लड्डु का स्वाद कैसा है? यदि आप की जिह्वा का स्वाद ठीक है, गुडमार वनस्पति नहीं खाई है, अनुभव करने की शक्ति ठीक है, तो फिर उनका स्वाद दूसरों से पूछने की कोई आवश्यकता नहीं हैं। बात यह है, कि साधक का संकल्प दृढ़ होना चाहीए। वह जिस मार्ग पर चल रहा है, उसे विश्वास के साथ चलना चाहिए। श्रद्धा आस्था का दिपक जलाकर चलना चाहिए, ताकि वह अंधेरे में ठोकरें न खाता फिरे। जो साधना कर रहा है, उसे उसके रस की अनुभूति तो होनी ही चाहिए। अहिंसा की साधना कर रहा है, तो हृदय में क्षमा, करुणा और प्रेम की लहर उठनी ही चाहिए। विकार-विजय की साधना में चल रहा है, तो उसे आत्म-भावों में आनन्द आना ही चाहिए, वैराग्य और निर्वेद के रस में डूब जाना चाहिए। उसकी अनुभूतियाँ १९४ मन जब लागणी के घाव से घवाता है तब कठोर बन ही नहीं सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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