Book Title: Gyan Atma ka Gun bhi Swarup bhi Author(s): Amarmuni Publisher: Z_Lekhendrashekharvijayji_Abhinandan_Granth_012037.pdf View full book textPage 6
________________ सिद्ध तो नहीं बने? बात यहाँ अटक जाती है, कि शरीर को छोड़ना मुक्ति नहीं, सिद्धशिला और लोकाग्र भाग भी मुक्ति नहीं है, तो फिर मुक्ति क्या है? और कहाँ है? वास्तव में जैन-दर्शन कभी किसी भौतिक पदार्थ के साथ आत्मा का समझौता नहीं करता। वह किसी स्थान या रुप को मुक्ति नहीं मानता। मुक्ति कोई स्थान विशेष नहीं, परिस्थिति विशेष है। आत्मा की अपनी स्वाभाविक स्थिति को ही मुक्ति कहा है। शरीर छोड़ना मुक्ति नहीं, किन्तु आत्मा का स्वस्वभाव में रमण करना ही मुक्ति है। अत: मुक्ति है, कषाय से राग-द्वेष आदि से मुक्त होना - "कषायमुक्ति: किल मुक्तिरेव।" यह मुक्ति जीवन में ही प्रारम्भ हो जाती है। आत्मा जब चतुर्थ गुणस्थान को स्पर्श करती है, उसमें सम्यक-ज्ञान की ज्योति जग उठती है, और मिथ्यात्व का अन्धकार छिन्न-भिन्न होकर नष्ट हो जाता है, कषाय की दृढ़ बेड़ियाँ शिथिल हो जाती है, तभी से आत्मा की मुक्ति प्रारम्भ हो जाती है। चौथे गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक मुक्ति है। जैसे-जैसे गुणस्थान की स्पर्शता आगे बढ़ती है, और राग-द्वेष की मन्दता, क्षीणता होती चली जाती है, ज्ञान का प्रकाश तीव्र से- तीव्रतर होता चला जाता है, वैसे-वैसे आत्मा मुक्ति की और अग्रसर होती जाती है। गुणस्थान का क्रम आत्मा की क्रमिक विशुद्धि अर्थात् क्रमिक मुक्ति का चित्र है। जितने-जितने अंश में विशुद्धि, निर्मलता और ज्ञान की ज्योति जलती रहती है, उतने-उतने अंश में आत्मा मुक्त हो जाती है। जब आत्मा पूर्णतया राग-द्वेष एवं कषाय से मुक्त हो जाता है, तब ज्ञानावरण - कर्म का क्षय होकर ज्ञान का सम्पूर्ण प्रकाश आलोकित हो उठता है"नाणस्स सव्वस्स पगासणाए, अन्नाण मोहस्स विवज्जणाए।" अज्ञान और मोह का सम्पूर्ण विलय हो जाने से ज्ञान पर गिरा पर्दा-आवरण हट जाता है, तो यह ज्योति जो एक घेरे में बन्द थी, आवरण से ढकी हुई थी, उन्मुक्त प्रकाश बिखेरने लग जाती है। बस, यही मुक्ति का स्वरुप है। ज्ञान का संपूर्ण प्रकाश हो जाना ही परिपूर्ण मुक्ति है। फिर देह का बन्धन रहा तब भी आत्मा उस बन्धन से मुक्त रहता है, और देह - बन्धन नहीं रहा तब भी। सिद्धान्त यह हुआ, कि देह की मुक्ति मात्र ही मुक्ति नहीं है, न कोई स्थान विशेष ही मुक्ति है, न कोई देश और न कोई वेश ही मुक्ति है, सम्प्रदाय और परम्परा में भी कोई मुक्ति नहीं है। दिगम्बर, श्वेताम्बर ये कोई मुक्ति के द्वार नहीं खोल देते, आज तो यह दुकानदारी हो गए है। दिगम्बर कहता है-मेरी दुकान पर ही मुक्ति की पुड़िया मिलेगी, तो श्वेताम्बर कहता है-मेरे यहाँ मिलेगी। दूसरी किसी दुकान पर पहँचो तो वह कहता है, कि मेरे यहाँ पर भी इसकी ऐजेन्सी है, मुक्ति का मुख्य वितरक तो मैं ही हूँ, बाकी तो नकली पुड़िया देते हैं। इस प्रकार से मुक्ति की ऐजेन्सियाँ लेकर सब अपनी-अपनी दुकानदारी चला रहे है। वास्तव में मुक्ति किसी के पास नहीं है, तुम्हारी मुक्ति तुम्हारे ही पास है। यदि कोई मुक्ति की पुड़िया होती तो श्रमण भगवान महावीर अपने जामाता जमाली को अवश्य ही दे देते। उसे मिथ्यात्व की बीमारी से बचा लेते। पर ऐसा हो ही नहीं सकता। मुक्ति कोई किसी को दे नहीं सकता, वह कहीं से भी प्राप्त नहीं हो सकती, वह तो अपने में ही है, और अपने से ही प्राप्त की जा सकती है। ऑपरेशन की शान्ति : अन्तर की कषायो का जब शमन किया जाएगा, उन्हे शान्त कर दिया जाएगा, तभी मुक्ति १९२ सत्य कभी कडवा नही होता मात्र जो लोग सत्य के आराधक नही होते वे ही सत्य से डरकर ऐसा कहते है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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