Book Title: Gyan Atma ka Gun bhi Swarup bhi Author(s): Amarmuni Publisher: Z_Lekhendrashekharvijayji_Abhinandan_Granth_012037.pdf View full book textPage 5
________________ I या दुःखी हूँ। इसका अर्थ यह हुआ कि शरीर के धर्म को, उसकी गति और चेष्टा को आत्मा अपना धर्म समझ बैठा है। अनादि कालीन सह-परिचय के कारण यह भ्रान्ति होना सहज है। आत्मा और कर्म अनादि काल से साथ-साथ चले आ रहे है, किन्तु साथ-साथ चले आने से दोनों एक नहीं हो जाते दूध में पानी रहता ही नहीं है और जब दूध में पानी मिला होता है, तो वह दूध के नाम से चलता है। परन्तु दूध के नाम से बिकने पर क्या पानी दूध हो गया ? नहीं पानी दूध में मिलकर भी पानी ही रहेगा, किसी भी स्थिति में वह दूध नहीं बन सकता। दोनों पदार्थ मूलतः मिन्न भिन्न है, उनकी एकात्म प्रतीति भ्रान्ति है। दूध और पानी की पहचान जिसको है, वह इस भ्रान्ति के चक्कर में कदापि नहीं आता। विचार कीजिए, कि सौ प्रकार की भिन्न-भिन्न औषधियों को कितना ही बारीक कूट-पीस कर एक कर दिया जाए, फिर भी प्रत्येक औषधि का गुण-धर्म भिन्न-भिन्न ही रहेगा। उनके संमिश्रण से औषधियों के अपने गुण -धर्म नष्ट नहीं होते। आत्मा और कर्म का, चेतन और जड़ का सम्बन्ध इसी प्रकार से चलता चला आ रहा है। आत्मा शरीर के ऊपर और शरीर आत्मा के ऊपर ऐसे छाए हुए हैं, कि दोनों के एकत्व की भ्रान्ति हो जाती है। यह भ्रान्ति ही तो अज्ञान है। जब दूध पानी को भिन्न भिन्न समझ लिया, तो भेद विज्ञान की बात शुरु हो गई। मुक्ति स्थान नहीं, स्थिति है : जड़ ओर चैतन्य का भेद विज्ञान जब हो जाता है, शरीर और आत्मा की भिन्न प्रतीति जब होने लगती है, तो आत्मा स्व स्वरूप को जान कर अपने स्व-स्वभाव में स्थित होने का प्रयत्न करता है, इसे आगमन की भाषा में सम्यक् ज्ञान कहते हैं। और जब आत्मा कर्म आवरण को हटाता हुआ स्वयं को पहचानने की स्थिति में पहुँचता है, तो यहीं से 'मुक्ति' शुरु हो जाती है अर्थात् वह 'मुक्त' होना प्रारंभ कर देता है। जिसे हम 'मुक्ति' कहते हैं, जिसके लिए हमारी समस्त साधनाएँ चल रही हैं। कहीं तपस्याएँ, कहीं दान-पुण्य और कर्म काण्ड चल रहे हैं उस मुक्ति के सम्बन्ध में भी हमारे मन में अनेक प्रकार के भ्रम और अज्ञान घुसे हुए हैं। वास्तव में मुक्ति क्या हैं? इसे बहुत कम साधक समझ पाते हैं। श्रमण भगवान् महावीर की 'मुक्ति' कब हुई ? यदि पूछा जाए तो आप कहेंगे- जीवन के ७२ वें वर्ष में पावापुरीं में दिवाली के दिन इतिहास की दृष्टि से आपका उत्तर सही हो सकता है, पर दर्शन और तत्त्वज्ञान की दृष्टी से यह उत्तर गलत है। दीवाली को तो प्रभु ने शरीर छोड़ा था, शरीर के समस्त बन्धनों को तोड़कर वे अशरीरी स्थिति में पहुँचे थे तो क्या शरीर छोड़ना ही मुक्ति है? शरीर तो सभी व्यक्ति छोड़ते हैं? मनुष्य भी, पशु-पक्षी भी। ऊँट-बैल और गधे घोड़े भी शरीर छोड़ते हैं, कीट-पतंगे भी शरीर छोड़ते हैं, तो क्या वे सब मुक्त हो गए ? बात यह हुई कि शरीर को छोड़ देना मात्र मुक्ति नहीं हैं। दूसरी बात, मुक्ति को एक स्थान-विशेष के साथ जोड़ दिया गया हैं। आप से पूछा जाए, कि मुक्ति कहाँ हैं? आप कहेंगे कि लोकाय भाग पर जो स्थान है, सिद्धशिला है, वह मुकि है। मैं पूछता हूँ, लोकाग्र भाग पर तो एकेन्द्रिय जीव भी बैठे हैं, बहुत से जीव वहाँ अनन्त - अनन्त काल से बैठे हैं, पृथ्वी, पानी, वायु आदि के अनन्त जीव-पिण्ड वहाँ विद्यमान है। क्या वे सब सिद्ध भगवान् हैं? क्या उन्हें हम णमो सिद्धाणं.... अथवा लोगग पठाण में ले सकते हैं? आप और हम भी उस स्थान पर अनेक बार जन्म मरण कर आए हैं, पर अभी तक पृथ्वी, Jain Education International - - मानव जब अत्यंत प्रसन्न होता है तब उसकी अंतरात्मा भी गाती रहती है। For Private & Personal Use Only १९१ www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10