Book Title: Gunsthan Praveshika
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 33
________________ सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र) गुणस्थान आचार्य श्री नेमिचन्द्रस्वामी ने गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २१ में सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान की परिभाषा निम्नानुसार दी है ह्र सम्मामिच्छुदयेण य, जत्तंतरसव्वघादिकज्जेण । ण य सम्म मिच्छं पिय, सम्मिस्सो होदि परिणामो।। सम्यग्मिथ्यात्व नामक दर्शनमोहनीय कर्म के उदय के समय में अर्थात् निमित्त से गुड़ मिश्रित दही के स्वाद के समान होनेवाले जात्यन्तर परिणामों को सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान कहते हैं। सम्यक्त्व = (मार्गणा की अपेक्षा) सम्यग्मिथ्यात्व । चारित्र - मिथ्याचारित्र; क्योंकि इस गुणस्थान में सम्यक्त्व नहीं है। काल - अंतर्मुहूर्त (जघन्य-छोटा मध्यम अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट-बड़ा मध्यम अंतर्मुहूर्त। गमनागमन - यहाँ से ऊपर गमन चौथे में तथा नीचे की ओर गमन मिथ्यात्व में होता है। पहले, चौथे, पाँचवें और छठवें गुणस्थान से ही यहाँ सम्यग्मिथ्यात्व में आगमन होता है। विशेषता - १. यहाँ जीव मरण नहीं करता। २. यहाँ जीव का मारणान्तिक समुद्घात भी नहीं होता। ३. यहाँ जीव नया आयुकर्म का बंध भी नहीं करता। ४. यदि तीसरे गुणस्थान में आने के पहले मिथ्यात्व के साथ आयुबंध किया हो, तो मिथ्यात्व गुणस्थान में जाकर और सम्यक्त्व के साथ आयुबंध किया हो, तो अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान में जाकर मरण करता है। ५. यहाँ संयम व संयमासंयम ग्रहण करने के परिणाम नहीं होते। ६. तीर्थंकर प्रकृति की सत्तावाला जीव इस गुणस्थान में नहीं आता। अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान आचार्यश्री नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २६ एवं २९ में अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान की परिभाषाएँ निम्नानुसार दी है ह्र सत्तण्हं उवसमदो, उवसमसम्मो खयादु खइयो य। बिदियकसायुदयादो, असंजदो होदि सम्मो य|| अप्रत्याख्यानावरण कषाय कर्म के उदय से असंयत होने पर भी पाँच, छह या सात (अनन्तानुबन्धी की चार और दर्शनमोहनीय की तीन) प्रकृतियों के उपशम, क्षय, क्षयोपशम की दशा में होनेवाले जीव के औपशमिक, क्षायिक तथा क्षायोपशमिक भावों को अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान कहते हैं। णो इंदियेसु विरदो, णो जीवे थावरे तसे वापि। जो सद्दहदि जिणुत्तं, सम्माइट्ठी अविरदो सो।। जो परिणाम, सम्यग्दर्शन से सहित हो; परन्तु इन्द्रिय-विषयों से और त्रस-स्थावर की हिंसा से अविरत हो अर्थात् एकदेश या सर्वदेश किसी भी प्रकार के संयम से रहित हो, उस परिणाम को अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान कहते हैं। अविरति का स्पष्टीकरण - __ पंचेन्द्रिय और मन के विषयों में प्रवृत्ति और षट्काय जीवों की हिंसा में प्रवृत्ति - ये अविरति के बारह भेद हैं। उपर्युक्त बारह प्रकार की अविरति का किंचित भी त्याग इन जीवों को नहीं होता; परन्तु अविरति में प्रवृत्ति हेयबुद्धि से रहती है तथा आगमानुसार सदाचार तो अवश्य होता ही है। सम्यक्त्व - औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक सम्यक्त्व में से एक।

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