Book Title: Gunsthan Praveshika
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 45
________________ (१४ अयोगकेवली गुणस्थान आचार्य श्री नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ६५ में अयोगकेवली गुणस्थान की परिभाषा निम्नानुसार दी है ह्र सीलेसि संपत्तो, णिरुद्धणिस्सेसआसवो जीवो। कम्मरयविप्पमुक्को, गयजोगो केवली होदि ॥ सम्पूर्ण शील के ऐश्वर्य से सम्पन्न, सर्व आस्रव निरोधक, कर्म बंध रहित जीव की योगरहित, वीतराग, सर्वज्ञ दशा को अयोगकेवली गुणस्थान कहते हैं। अन्य नाम - अपर नाम सयोगी जिन को छोड़कर पूर्वोक्त तेरहवें गुणस्थानवत् सर्वनाम का प्रयोग यहाँ सम्भव है। सम्यक्त्व - क्षायिक सम्यक्त्व अर्थात् परमावगाढ़ सम्यक्त्व । चारित्र - परम यथाख्यात चारित्र । काल - पाँच ह्रस्व स्वरों (अ, इ, उ, ऋ, लृ) का उच्चारण काल पर्यंत अर्थात् अंतर्मुहूर्त | गमनागमन - यहाँ से सिद्धदशा के लिए ही गमन होता है। तेरहवें गुणस्थान से ही यहाँ आगमन होता है। विशेषता - १. इस गुणस्थान के अंत समय में सब कर्मों का सर्वथा अभाव हो जाता है। २. योगाभाव के कारण यहाँ ईर्यापथास्रव भी नहीं है । ३. मुनि के ८४ लाख उत्तर गुण तथा शील संबंधी अठारह हजार भेदों की पूर्णता भी यहाँ ही होती है। ४. पूर्ण संवर तथा पूर्ण निर्जरा भी यहाँ ही होती है। ५. यहाँ " अयोग" शब्द आदि दीपक है। उपरिम सिद्ध दशा अयोगरूप ही है। P गुणस्थानातीत सिद्ध भगवान गुणस्थानातीत सिद्ध भगवान आचार्यश्री नेमिचंद्र ने गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ६८ में गुणस्थानातीत सिद्ध भगवान की परिभाषा निम्नप्रकार दी है ह्र अविहकम्मवियला, सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा । अट्टगुणा किदकिच्चा, लोयग्गणिवासिणो सिद्धा ।। ज्ञानावरणादि अष्ट कर्म रहित, अनंतसुखामृतस्वादि, परम शांतिमय, मिथ्यादर्शनादि सर्व विकार रहित-निर्विकार, नित्य, सम्यक्त्व आदि आठ प्रधान गुण युक्त, अनंत शुद्ध पर्यायों से सहित, कृतकृत्य, लोकाग्रस्थित, वीतरागी, सर्वज्ञ निकल परमात्मा को सिद्ध भगवान कहते हैं। अन्य नाम - इनके सिद्ध, परमशुद्ध, कार्य-परमात्मा, लोकाग्रवासी, संसारातीत, निरंजन, निष्काम, साध्य-परमात्मा, परमसुखी, ज्ञानाकारी, चिरवासी इत्यादि अनेक नाम हैं। इन्हें देहमुक्त भी कहते हैं । सम्यक्त्व - क्षायिक सम्यक्त्व । चारित्र - परम यथाख्यात चारित्र । काल - सादि अनन्त काल । गमनागमन - चौदहवें गुणस्थान से ही यहाँ आगमन होता है। आगे सदाकाल गमनागमन रहित है। विशेषता - १ यद्यपि अनन्तानन्त सिद्धों के ज्ञानादि अनंतानंत गुणों की प्रगटता में किंचिदपि अंतर नहीं है, तथापि आकार - व्यंजनपर्याय में अन्तर होता है। २. भूतप्रज्ञापक नैगमनय से क्षेत्र, काल, आदि द्वारा भी इनमें भेद किया जाता है। यथा - विदेह क्षेत्र से मुक्त, भरतक्षेत्र से मुक्त इत्यादि । ३. ये सिद्ध परमेष्ठी परम्परा द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म- तीनों ही कर्ममलों से रहित हैं । ४. सिद्ध-दशा की प्रगटता मनुष्य-क्षेत्र निवास के अन्तिम समय में ही होती है । तत्काल ही ऋजु गति से गमन कर सिद्धशिला के ऊपर लोकाग्र में जाकर अनंत अनंत काल वहाँ ही स्थिररूप से विराजमान रहते हैं। ५. आत्मगुणों की परिपूर्ण शुद्धिमय, विकासमय यही दशा है। P

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