Book Title: Gunsthan Praveshika
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 43
________________ (१२ क्षीणमोह गुणस्थान आचार्यश्री नेमिचंद्र ने गोम्मटसार गाथा ६२ में क्षीणमोह गुणस्थान की परिभाषा निम्नप्रकार दी है ह्र णिस्सेसरवीणमोहो, फलिहामलभायणुदयसमचित्तो । रवीणकसायो भण्णदि, णिग्गंथो वीयरायेहिं ॥ स्फटिकमणि के पात्र में रखे हुए निर्मल जल के समान संपूर्ण कषायों के क्षय के समय होनेवाले जीव के अत्यंत निर्मल वीतरागी परिणामों को क्षीणमोह गुणस्थान कहते हैं। अन्य नाम - इसका अपर नाम क्षीणकषाय गुणस्थान तथा पूर्ण नाम क्षीणकषाय- वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान है। क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ संबंधी स्पष्टीकरण क्षीण = क्षय, नाश, नष्ट, कषाय = राग-द्वेष आदि विकारी परिणाम, वीतराग रागद्वेष आदि सर्व विकारों से रहित, अत्यन्त निर्मल दशा । छद्मस्थ = ज्ञानावरणादि के सद्भाव में विद्यमान अल्पज्ञान- दर्शन । सर्व कषायों के क्षय से पूर्ण निर्मल वीतराग दशा प्रगट हो जाने पर भी ज्ञानावरणादि का क्षयोपशम होने से मुनिराज छद्मस्थ - अल्पज्ञ ही है। सम्यक्त्व क्षायिक सम्यक्त्व। अन्य किसी सम्यक्त्व के लिए यहाँ अवकाश नहीं है। चारित्र - क्षायिक यथाख्यातचारित्र; क्योंकि मोह परिणाम का सर्वथा क्षय / नाश, अभाव हो गया है। काल - अंतर्मुहूर्त । यह अंतर्मुहूर्तकाल चार क्षुद्रभव प्रमाण है। गमनागमन – यहाँ से गमन एकमात्र तेरहवें गुणस्थान में ही होता है । यहाँ आगमन क्षपक दसवें गुणस्थान से ही होता है। विशेषता - १. मात्र साता वेदनीय का ईर्यापथास्रव ही होता है। क्षीणमोह गुणस्थान २. इसके अंतिम समय में तीन घातिया कर्मों का क्षय होता है। ३. औदारिक शरीरधारी छद्मस्थ जीवों के शरीर में निरन्तर अनन्त निगोदिया जीव विद्यमान रहते हैं; परन्तु क्षीणकषाय छद्मस्थ जीव के प्रथम समय से ही प्रति समय अनन्त बादर निगोदिया जीवों का निकलना प्रारंभ होता है। इसके अन्तिम समय में सभी बादर निगोदिया जीवों के अभाव से अनंतरसमयवर्ती तेरहवें गुणस्थान के पहले समय में जीव परमौदारिक शरीरधारी हो जाता है। ४. चतुर्थ गुणस्थान से यहाँ तक सभी जीव "अंतरात्मा" संज्ञक हैं। ५. " क्षीणमोह" शब्द आदि दीपक हैं। यहाँ से उपरिम सभी जीव क्षीणमोही ही हैं। जैसे क्षीणमोही सयोगकेवली आदि । ६. यहाँ “छद्मस्थ” - शब्द अन्त-दीपक है। यहाँ तक सभी गुणस्थानवर्ती जीव छद्मस्थ अर्थात् अल्पज्ञ ही होते हैं। ७. यहाँ बारहवें गुणस्थान के प्रथम समय में ही मुनिराज द्रव्य तथा भाव चारित्रमोहनीय से भी रहित होते हैं। इसलिए इनको मोहमुक्त कहना युक्ति तथा शास्त्रसम्मत भी है । प्रश्न : बारहवें गुणस्थान में क्षीणमोही होते ही सर्वज्ञ हो जाना चाहिए था; इसमें क्या आपत्ति है ? उत्तर : ज्ञानावरणादि तीन घाति कर्मों की सत्ता व उदय ही सर्वज्ञ होने में निमित्तरूप में बाधक है; क्योंकि दसवें गुणस्थान में भी राग परिणाम से ज्ञानावरणादि का बंध हुआ था। तथा पूर्वकाल में बंधे हुए कर्मों की भी सत्ता है, उनका क्षय होते ही केवलज्ञान होता है। तीन घातिकर्मों के नाश के लिये अंतर्मुहूर्त पर्यंत एकत्ववितर्कशुक्लध्यान / शुद्धोपयोग का होना आवश्यक है। मुनिराज वीतराग होने के बाद सर्वज्ञ होते हैं, यह सामान्य कथन है और पूर्ण वीतराग होने पर भी एक अंतर्मुहूर्त कालपर्यंत एकत्ववितर्कशुक्लध्यान / शुद्धोपयोग करने के बाद ही तीनों घातिकर्मों का क्षय होने से मुनिराज सर्वज्ञ होते हैं, यह कथन विशेष तथा सूक्ष्म है । (विशेष स्पष्टीकरण लिए पंचास्तिकाय गाथा १५०-१५१ की टीका देखिये) P

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