Book Title: Gunsthan Praveshika
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 40
________________ अनिवृत्तिकरण गुणस्थान आचार्य श्री नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५७ में अनिवृत्तिकरण गुणस्थान की परिभाषा निम्नानुसार दी है ह्र होति अणियट्टिणो ते, पडिसमयं जेस्सिमेक्कपरिणामा। विमलयरझाणहुयवहसिहाहिं गिद्दड्ढकम्मवणा॥ अत्यंत निर्मल ध्यानरूपी अग्नि शिखाओं के द्वारा, कर्म-वन को दग्ध करने में समर्थ, प्रत्येक समय के एक-एक सुनिश्चित वृद्धिंगत वीतराग परिणामों को अनिवृत्तिकरण गुणस्थान कहते हैं। वास्तव में तो यह मात्र निमित्त-नैमित्तिक संबंध की अपेक्षा असद्भूत व्यवहारनय से कथन करने की पद्धति है। सत्य वस्तुस्थिति तो यह है कि जब महामुनिराज अन्तरोन्मुखी पुरुषार्थ के बल से वीतरागभाव को विशेष बढ़ाते हैं, वीतरागता उत्तरोत्तर पुष्ट होती जाती है, तब उसके निमित्त से पूर्वबद्ध चारित्रमोहनीय कर्म के स्पर्धक अपने आप स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात, संक्रमणादि-रूप होकर निरन्तर अकर्मरूप से परिणमित होते जाते हैं। इसी कार्य को “ध्यानरूपी अग्निशिखाओं ने कर्मवन को जला दिया" इन अलंकारिक शब्दों में आचार्यदेव ने कहा है। ___इस गुणस्थान का पूर्ण नाम अनिवृत्तिकरणबादरसांपराय (कषाय) प्रविष्ट शुद्धिसंयत गुणस्थान है। भेद - उपशमक और क्षपक श्रेणी की अपेक्षा इसके तत्संबंधी ही दो भेद हैं - उपशमक अनिवृत्तिकरण और क्षपक अनिवृत्तिकरण । अनिवृत्तिकरण बादरसांपराय प्रविष्ट शुद्धिसंयत का स्पष्टीकरण - शब्दार्थ - अनिवृत्तिकरण-अ+निवृत्ति = अनिवृत्ति । अ = नहीं, निवृत्ति = भेद । करण = परिणाम, अनिवृत्तिकरण = भेद रहित-सुनिश्चित समान परिणाम । अनिवृत्तिकरण गुणस्थान बादर = स्थूल । सांपराय = कषाय । प्रविष्ट = प्रवेशप्राप्त, शुद्धि = शुद्धोपयोग, संयत = स्वरूप में सम्यक्तया लीन । ____ चारित्र मोहनीय की २१ प्रकृतियों के उपशम-क्षय में निमित्त होनेवाले संज्वलन कषाय के मंदतम उदयरूप स्थूल कषाय के सद्भाव में सुनिश्चित, विशिष्ट-वृद्धिंगत स्वरूपलीन, शुद्धोपयोग परिणाम युक्त जीव अनिवृत्तिकरण-बादर-सांपराय-प्रविष्ट-शुद्धि-संयत है। सम्यक्त्व - द्वितीयोपशम और क्षायिक सम्यक्त्व इन दोनों में कोईएक। चारित्र - क्षायोपशमिक चारित्र । उपचार से औपशमिक या क्षायिक चारित्र भी कहते हैं। ___ मोहनीय का पूर्ववत (तीव्र के स्थान पर मंदतम मात्र परिवर्तन करके छठवें गुणस्थान के समान) क्षयोपशम होने के कारण यहाँ क्षायोपशमिकचारित्र है। औपशमिक-क्षायिक चारित्र संबंधी कथन अष्टम गुणस्थानवत् है। काल - मरण की अपेक्षा जघन्य काल एक समय । उत्कृष्ट काल अंतर्मुहर्त । अगला जन्म वैमानिक देवों में ही होता है। गमनागमन - यहाँ से ऊपर की ओर गमन दसवें गुणस्थान में तथा नीचे की ओर गमन आठवें गुणस्थान में होता है। तथा आगमन आठवें गुणस्थान से और उपशम श्रेणी से गिरते समय दसवें गुणस्थान से भी होता है। विशेषता - १. अनंतगुणी-विशुद्धि आदि आवश्यक कार्य अष्टम गुणस्थानवत् है। ___२. चारित्र मोहनीय कर्म, बादर कृष्टि से सूक्ष्मकृष्टिरूप परिणमित होता है। इस कृष्टिकरण से सूक्ष्मलोभ कषाय के बिना शेष २० चारित्रमोहनीय प्रकृतियों का उपशम अथवा क्षय होता है। ३. भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम सुनिश्चित, विसदृश तथा एक समयवर्ती जीवों के परिणाम सुनिश्चित, सदृश ही होते हैं। ४. यहाँ बादर शब्द अन्त-दीपक हैं। यहाँ तक सभी गुणस्थान बादर कषायवाले ही होते हैं।

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