Book Title: Granthtrai Author(s): Vijayanandsuri, Shilchandrasuri Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti View full book textPage 5
________________ संपादकीय परमदयालु अने परमउपकारी पूज्यपादश्रीए १६ ग्रंथोनी रचना करेली. तेओना रचेला आ तमाम ग्रंथो तर्कबद्धता, भाषासौष्ठव, शास्त्रागमनिष्ठता अने समन्वयपरक अनाग्रही विचारसरणिने कारणे तेमने प्राचीन शास्त्रकारोनी हरोळमां मूकी आपे तेवा छे. आमांना अमुक प्रकाशित छे, तो अमुक अप्रकाशित. ते पैकी अप्रकाशित एवा त्रण ग्रंथोनुं यथामति सम्पादन करीने अहीं प्रस्तुत करवामां आव्या छे. प्रथम ग्रंथ 'प्रतिष्ठातत्त्व' नामे छे. तेमां जिनबिम्बनी प्राणप्रतिष्ठा एटले शुं ? ते पदार्थ विशे अत्यंत विशद विमर्श करवामां आव्यो छे. भिन्न भिन्न दार्शनिक मतोने पूर्वपक्ष तरीके स्थापी, ते मतोनां मंतव्योनी विसंगति दर्शावी छेवटे जैनमत-संमत प्रतिष्ठातत्त्वनी स्थापना शास्त्र-युक्ति पूर्वक, कर्ताए करी छे. एमां प्रसंगवश, श्रीशेरीसातीर्थनो सांप्रत इतिहास पण तेओए विशदताथी वर्णव्यो छे, जेने लीधे आ प्रकरण तार्किकतात्त्विक बनवानी साथे ऐतिहासिक पण बनी गयुं छे. बीजो ग्रंथ छे 'आचेलक्यतत्त्व'. कल्पसूत्रनां व्याख्यानोमां प्रारंभमां ज आवतां दश कल्पोना वर्णनमा प्रथम कल्पनुं नाम 'आचेलक्य कल्प' छे. आ कल्पना स्वरूप परत्वे टीकाकारोमां मतभेदो प्रवर्ते छे. आ मतभेदो, आग्रहरहितपणे-मध्यस्थभावे, शास्त्राधारपूर्वक निवारण आ प्रकरणमां करवामां आव्युं छे. बे मतोमां कोई एक ज मत, वास्तवमां, खरो होय छे. परंतु तेनो पक्ष लेवा जतां, खबर पण न पडे तेम, आपणे - सामान्य माणसो, ते पक्षना पक्षकार/पक्षपाती बनी जतां होईए छीए, अने पछी विरुद्ध पक्षनी टीका, विरोध, खण्डन माटे मची पडीए छीए. मोटे भागे आम करवा जतां विवेक अने सभ्यतानी हानि ज थाय छे, अने शास्त्रोनी तथा पूज्यपुरुषोनी आशातना थती होय छे. ग्रंथकार आ दूषणथी सर्वथा बची शक्या छे. तेमणे शास्त्रवचनोना टेके टेके, ते वचनोना ऐदंपर्य सुधी ऊंडा ऊतरीने, यथार्थ जणायेला पक्षनी स्थापना करी ज छे. परंतु तेम करवा जतां, बीजा पक्ष तथा पक्षकार प्रत्ये अनादर के आशातना न थई जाय तेनो विवेकपूत ख ल तेमणे राख्यो छे, अने ते पक्षकार पण शास्त्रसापेक्षभावे ज पोतानी स्थापना करतां होई, तेने पण नयदृष्टिए - अनेकांतदृष्टिए ज लेवा-मूलववा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 ... 176