Book Title: Gommateshwar Bahubali
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 4
________________ गोम्मटेश्वर बाहुबली : एक नया चिन्तन हुआ। धन्य है उस कारीगर को जिसने इसे गढ़ा है, वह भी कम धन्य नहीं जिसने इसे गढ़ाया है, आदि न जाने कितने गीत गावेंगे उनके जिन्होंने बनाई है, बनवाई है, या फिर पत्थर पॉलिश की चर्चा करेंगे। इन सबकी चर्चा में वे कहीं नहीं आवेंगे जिनकी यह मूर्ति है, जिन्होंने युग के आदि में घोर तपस्या कर सर्वप्रथम मुक्ति प्राप्त की थी। लोगों को हजार वर्ष याद आते हैं, हजार वर्ष की महिमा आती है, मूर्ति को हजार वर्ष हो गए; पर जिसकी यह मूर्ति है; उसे कितने हजार वर्ष हुए, इसकी ओर ध्यान नहीं जाता, महिमा नहीं आती। सामान्य मूर्तियाँ तो मूर्तिमान की याद कराने वाली होती हैं, पर यह तो ऐसी अद्वितीय मूर्ति है जो दर्शक को इतनी अभिभूत कर देती है कि वह स्वयं को तो भूल ही जाता है, मूर्तिमान को भी भूल जाता है। उत्तर और दक्षिण को जोड़ने वाली इस विशाल मूर्ति के सामने जब महामस्तकाभिषेक के अवसर पर बीस प्रान्तों से आये बीस भाषा-भाषी लाखों लोग खड़े होंगे, तब वे सब भेदभाव भूलकर यह अनुभव अवश्य करेंगे कि हम सब इस एक देव के उपासक हैं, एक हैं। इस एकता की प्रतीक है यह विशाल मूर्ति । तथा बाहुबली के असीम धैर्य एवं ध्यान की भी प्रतीक है कि जिसमें उनके शरीर पर बेलें चढ़ गई, जहाँ वे खड़े थे, वहाँ सर्पो ने बिल बना लिए; पर उनका धैर्य भंग नहीं हुआ, ध्यान भंग नहीं हुआ। वे अन्तर में गए सो गए, फिर बाहर आए ही नहीं और कुछ गोम्मटेश्वर बाहुबली : एक नया चिन्तन क्षणों को उनका उपयोग आत्मा से हटा भी तो तत्काल फिर उसी में लगाने के उग्र पुरुषार्थ में लग गये । यद्यपि ऐसा कई बार हआ पर वे उसी में लगे रहे और अपने अन्तिम लक्ष्य सर्वज्ञता को प्राप्त कर उसी में मग्न हो गये। इस लघु निबन्ध के रूप में भगवान बाहबली को प्रणामांजलि अर्पित करते हए मैं इस मूर्ति और मर्तिमान के सम्बन्ध में प्रचलित कथाओं और दन्त-कथाओं की चर्चा नहीं करना चाहता: क्योंकि एक तो वे इतनी चर्चित हो चुकी हैं, हो रही हैं और होंगी कि इनकी चर्चाओं में जाने से पिष्ट-पेषण के अतिरिक्त और कुछ नहीं होगा। दूसरे संबद्ध-असंबद्ध बहुचर्चित चर्चाओं को दुहराकर गंभीर पाठकों के समय का अपव्यय भी मुझे इष्ट नहीं है। मैं तो कुछ ऐसी चर्चा करना चाहता हूँ कि जो हमें उस मार्ग की ओर प्रेरित कर सके जिस मार्ग पर वह महातपस्वी युग की आदि में चला था और जिसका आख्यान हजार वर्ष से नहीं, अपितु युग की आदि से ही प्रेरणा देता आ रहा है। भूस्वामित्व को हार कर तो सभी को छोड़ना पड़ता है, पर बाहुबली ने इसे जीतकर छोड़ा था। जीतकर छोड़ देने में जो सौन्दर्य और निष्पृहता प्रस्फुटित होती है, वह हारकर छोड़ने में कहाँ दिखाई देती है? बाहुबली का त्याग अप्राप्ति की मजबूरी नहीं, अपितु प्राप्ति का परित्याग था, विरक्तता का परिणाम था। बाहुबली की क्षमा मजबूरी में महात्मा गाँधी' का नाम नहीं थी, अपितु 'वीर का आभूषण' थी। यह विशाल मूर्ति मात्र बाहुओं के असीम बलधारी की नहीं

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