Book Title: Gommateshwar Bahubali
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 5
________________ गोम्मटेश्वर बाहुबली : एक नया चिन्तन है, अपितु असीम आत्मबलधारी की है। बाहुबली के बाहुओं का बल तो चक्रवर्ती भरत के साथ युद्ध में तब प्रदर्शित हुआ था, जब वे पोदनपुर के राजा थे। पर यह मूर्ति पोदनपुर के महाराजा की नहीं, परम तपस्वी मुनिराज बाहुबली की है, जिसमें उनके अजेय तपोबल का धीरोदात्तरूप प्रस्फुटित हआ है। उन जैसा स्वाभिमानी और दृढ़संकल्पी व्यक्तित्व इतिहास में तो बहुत दूर, पुराणों के पृष्ठों में भी दृष्टिगोचर नहीं होता। ऐसा त्यागी, ऐसा तपस्वी, ऐसा निस्पृही, ऐसा दृढ़संकल्पी व्यक्तित्व कि जिसमें पीछे मुड़कर देखना सीखा ही न हो, जो जब युद्ध में जमा तो जमा ही रहा और विजयश्री का वरण करके ही दम ली तथा जब अपने में जमा. अपने में रमा. तो ऐसा रमा कि बाहर की ओर देखा ही नहीं; कर्म-शत्रुओं का नाश कर अनन्तचतुष्टयरूप लक्ष्मी का वरण कर इस युग के आरंभ में ही मुक्ति प्राप्त की। बाहुबली दिगम्बरत्व धारण कर जब अन्तर्मुख हुए तो फिर वे बाहर आये ही नहीं, कदाचित् उपयोग आत्मा से हटा भी तो फिर उसी में लगाने के अनन्त पुरुषार्थ में लग गये। एक वर्ष तक लगातार वे या तो आत्मनिमग्नता की स्थिति में रहे या फिर उसे पुनः प्राप्त करने के सार्थक पुरुषार्थ में संलग्न रहे । दीक्षा के बाद भोजन ग्रहण करना, भोजन के लिए जाना तो बहुत दूर भोजन करने का विकल्प भी उन्हें छू नहीं सका। एक वर्ष तक ही क्यों, वे तो आज तक भी आत्मनिमग्न ही हैं। एक वर्ष तो उनकी साधना के उत्कर्ष का काल था, उसके बाद तो उनकी साधना सिद्ध हो गई, जो आज तक ही क्यों, अनन्त काल तक तद्रुप ही रहने वाली है। गोम्मटेश्वर बाहुबली : एक नया चिन्तन आज करोड़ों आँखें जिनके प्रतिबिम्ब को आश्चर्य से निहार रही हैं, उन्होंने जब एक बार आँख बन्द की तो आज तक खोली ही नहीं । वे आँख रहते हुए उसे बिना खोले ही सब कुछ देखनेजानने लगे- तो कुछ काल के बाद अपनी निरर्थकता जान आँख ही क्या, आँखों का आधार देह भी चली गई और वे विदेह हो गये। यह विशाल जिनबिम्ब-प्रतिबिम्ब तब का है, जबकि वे आत्मसाधनारत थे। परम-पावन नग्न दिगम्बर दशा का यह अजोड़ जिनबिम्ब, दिगम्बरत्व की साधना का यह सर्वोत्कृष्ट प्रतीक जहाँ एक ओर जगत को दिगम्बरत्व की ओर आकृष्ट कर रहा है, वहीं दूसरी ओर यह भी जता रहा है कि दिगम्बरत्व हँसी-खेल नहीं है। विन्ध्यगिरि पर स्थित लता-गल्मों से आवेष्टित इस विराट दिगम्बर जिनबिम्ब की स्थापना का एक उद्देश्य शिथिलाचारी दिगम्बरों के समक्ष दिगम्बर-साधुता का एक कठोररूप प्रस्तुत करना भी रहा हो तो कोई आश्चर्य नहीं; क्योंकि उस समय शिथिलाचार आरंभ हो गया था। नवीं शती के आचार्य गुणभद्र आत्मानुशासन में दिगम्बर मुनियों की नगरवास की ओर बढ़ती हुई प्रवृत्ति की आलोचना करते हुए लिखते हैं : "इतस्ततश्च त्रस्यतो विभावर्या यथा मृगाः। वनाद्विशन्त्युपग्रामं कलौ कष्टं तपस्विनः ।। जिसप्रकार इधर-उधर से भयभीत मृग रात्रि में वन को छोड़कर गाँव के समीप आ जाते हैं; उसीप्रकार इस कलिकाल

Loading...

Page Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9