Book Title: Gandhiji ki Jain Dharm ko Den
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 1
________________ गांधीजी की जैन धर्म को देन धर्म के दो रूप होते हैं। सम्प्रदाय कोई भी हो उसका धर्म बाहरी और भीतरी दो रूपों में चलता रहता है। बाह्य रूप को हम 'धर्म कलेवर' कहें तो भीतरी रूप को 'धर्म चेतना' कहना चाहिए। धर्म का प्रारम्भ, विकास और प्रचार मनुष्य जाति में ही हुश्रा है। मनुष्य ग्बुद न केवल चेतन है और न केवल देह । वह जैसे सचेतन देहरूप है वैसे ही उसका धर्म भी चेतनायुक्त कलेवररूप होता है । चेतना की गति. प्रगति और अवगति कलेवर के सहारे के बिना असंभव है । धर्म चेतना भी बाहरी आचार रीति-रस्म, रूढ़ि-प्रणाली आदि कलेवर के द्वारा ही गति, प्रगति और अवगति को प्राप्त होती रहती है । धर्म जितना पुराना उतने ही उसके कलेवर नानारूप से अधिकाधिक बदलते आते हैं। अगर कोई धर्म जीवित हो तो उसका अर्थ यह भी है कि उसके केसे भी भद्दे या अच्छे कलेवर में थोड़ा-बहुत चेतना का अंश किसी न किसी रूप में मौजूद है। निष्प्राण देह सड़-गल कर अस्तित्व गँवा बैठती है। चेतनाहीन सम्प्रदाय कलेवर की भी वही गति होती है। जैन परम्परा का प्राचीन नाम-रूप कुछ भी क्यों न रहा हो; पर वह उस समय से अभी तक जीवित है । जब-जब उसका कलेवर दिखावटी और रोगग्रस्त हुआ है तब-तब उसकी धर्मचेतना का किसी व्यक्ति में विशेषरूप से स्पन्दन प्रकट हुआ है । पाश्वनाथ के बाद महावीर में स्पन्दन तीन रूप से प्रकट हुत्रा जिसका इतिहास साक्षी है। धर्मचेतना के मुख्य दो लक्षण हैं जो सभी धर्म-सम्प्रदायों में व्यक्त होते हैं। भले ही उस आविर्भाव में तारतम्य हो। पहला लक्षण है, अन्य का भला करना और दूसरा लक्षण है अन्य का बुरा न करना। ये विधि-निषेधरूप या हकार-नकार रूप साथ ही साथ चलते हैं। एक के सिवाय दूसरे का संभव नहीं । जैसे-जैसे धर्मचेतना का विशेष और उत्कट स्पन्दन वैसे-वैसे ये दोनों विधि निषेध रूप भी अधिकाधिक सक्रिय होते हैं। जैन-परम्परा की ऐतिहासिक भूमिका को हम देखते हैं तो मालूम पड़ता है कि उसके इतिहास काल से ही धर्मचेतना के उक्त दोनों लक्षण असाधारण रूप में पाये जाते हैं। जैन-परम्परा का ऐति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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