Book Title: Gandhiji ki Jain Dharm ko Den
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 9
________________ गांधीजी की जैन धर्म को देन 546 अनेकान्त दृष्टि इत्यादि अपने विरासतगत पुराने सिद्धान्तों को क्रियाशील और सार्थक साबित कर सकता है। जैन परम्परा में 'ब्रह्मा वा विष्णुवा हरो जिनो वा नमस्तस्मै' जैसे सर्वधर्मसमन्वयकारी अनेक उद्गार मौजूद थे। पर आमतौर से उसकी धर्मविधि और प्रार्थना बिलकुल साम्प्रदायिक बन गई थी। उसका चौका इतना छोटा बन गया था कि उसमें उक्त उद्गार के अनुरूप सब सम्प्रदायों का समावेश दुःसंभव हो गया था / पर गांधीजी की धर्मचेतना ऐसी जागरित हुई कि धर्मों की बाड़ाबँदी का स्थान रहा ही नहीं। गांधीजी की प्रार्थना जिस जैन ने देखी सुनी हो वह कृतज्ञतापूर्वक बिना कबूल किये रह नहीं सकता कि 'ब्रह्मा वा विष्ण' की उदात्त भावना या 'राम कहो रहिमान कहो' की अभेद भावना जो जैन परम्परा में मात्र साहित्यिक वस्तु बन गई थी, उसे गांधीजी ने और विकसित रूप में सजीव और शाश्वत किया / हम गांधीजी की देन को एक-एक करके न तो गिना सकते हैं और न ऐसा भी कर सकते हैं कि गांधीजी की अमुक देन तो मात्र जैन समाज के प्रति ही है और अन्य समाज के प्रति नहीं। वर्षा होती है तब क्षेत्रभेद नहीं देखती / सूर्य चन्द्र प्रकाश फेंकते हैं तब भी स्थान या व्यक्ति का भेद नहीं करते / तो भी जिसके घर में पानी अाया ओर जिसने प्रकाश का सुख अनुभव किया, वह तो लौकिक भाषा में यही कहेगा कि वर्षा या चन्द्र सय ने मेरे पर इतना उपकार किया। इसी न्याय से इस जगह गांधीजी की देन का उल्लेख है, न कि उस देन की मर्यादा का। गांधीजी के प्रति अपने ऋण को अंश से भी तभी अदा कर सकते हैं जब उनके निर्दिष्ट मार्ग पर चलने का हड़ संकल्प करें और चलें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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