Book Title: Dvisandhan Mahakavya
Author(s): Dhananjay Mahakavi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 9
________________ २६ द्विसन्धान महाकाव्य के सुपुत्रके निमित्त एक टीका लिखी और मेघचन्द्र के पुत्र (१) बोरनन्दिने शक सं० १०७६ में अपने आचारसारको रचना समाप्त की। इस उल्लेखके आधारपर पाठक पम्पका समय शक सं० १०७६ के कुछ पूर्वका स्वीकार करते हैं । तेरदाल शिलालेख, जिसमें श्रुतकीर्ति विद्यका नाम उल्लिखित है, का समय शक सं० १०४५ है । "इसमें और आचारसारके रचनाकालमें इक्कीस वर्षका अन्तर है। श्रुतकीर्ति विद्य ने शक सं० १०४५ के बाद ही अपने ग्रन्थका निर्माण अवश्य कर लिया होगा।" परन्त चकि कविने अपना वास्तविक नाम रचनासे सम्बद्ध नहीं किया, राघवपाण्डवीयका लेखक अज्ञात रहा होगा, यहाँ तक कि अपने समकालीनों. को भी इस बातसे परिचित नहीं कराया। और पम्प, जो जन और कविके रूपमें उससे अवश्य परिचित रहा होगा, ने उसके रचयिताके विषयमें यह महत्वपूर्ण तथ्य सुरक्षित हुआ। यहाँ फुटनोटमें के० वी० पाठकने लिखा है कि राघवपाण्डवीय नामके दो संस्कृत काव्य उपलब्ध हैं एक ब्राह्मण और दूसरा जन । परन्तु उपर्युक्त जन संस्कृत काव्य, जिसका रचयिता पम्पने श्रुतकीति विद्यको बताया, ब्राह्मण संस्कृत काव्यकी अपेक्षा लम्बा है । और बह धनंजयको रचनाके रूपमें प्रसिद्ध है यहां आठवें अध्यायको पुष्पिका और प्रथम अध्यायका अन्तिम पद प्रस्तुत किया मया है।" इससे स्पष्ट है कि श्रुतकीति विद्य और धनंजय एक ही व्यक्तित्व और कृतित्वकं दिग्दर्शक है । यहां यह उल्लेख करना आवश्यक नहीं कि धनंजय कोशके रचयिता कर्णाटकके दिगम्बर जैन है । पाठकका निष्कर्ष तथ्य संमत दिखाई नहीं देता। उनसे निर्णयमें कुछ त्रुटियाँ प्रतीत होती है । लगता है कि वे धनंजयको तो रचयिता मानते हैं और श्रुतकीतिको धनंजयको उपाधि स्वीकार करते हैं। परन्तु द्विसन्धान काव्य में उन्होंने कहीं भी इस ध्रुतिकोति विद्य जैसी उपाधिका उल्लेख नहीं किया है । यहाँ तक कि नाममालामें भी इसका कोई जिक्र नहीं जिसे पाठक धनंजयकी रचना मानते हैं। दूसरे विद्य एक चपाधि है जो आगम, तक और व्याकरणमैं दक्षता पाने की सूचिका है परन्तु श्रुतकीति इस प्रकारको कोई उपाधि नहीं, उसे तो अनेक जैनाचार्योंने अपने नियमित नामके रूपमें स्वीकारा है। अतएव धनंजय बोर श्रुतकीतिको एक मानना युक्तियुक्त नहीं । कविराजके समान श्रुतकीर्ति विद्या ने भी सम्भवतः राघवपाण्डवीय लिखा होगा वह हमें उपलब्ध नहीं । परन्तु उसे धनंजयफे राघवपाण्डथोयसे पृथक् ही मानना होगा। क्योंकि धनंजय और श्रुतकीतिको एक व्यक्तित्व मानने के लिए कोई प्रमाण हमारे पास नहीं है। तीसरे, श्रुतकीर्ति तेरदाल शिलालेख्न और पम्पके कथनानुसार ती था और बादमें कोल्हापुर शिलालेखमें इन्हें आचार्य के रूप में स्मरण किया है। परन्त उपलब्ध प्रमाणोंसे यह तुम जानते हैं कि धनंजय गहस्थ थे. मनि नहीं। उन्होंने अपनी ऐसी किसी परम्पराका भी उल्लेख नहीं किया और श्रुतकीर्तिके राघवपाण्डवोयके सन्दर्भमें अभिनव पम्प द्वारा प्रस्तुत वर्णन धनंजयके द्विसन्धान काव्यसे मेल नहीं खाता । श्रुतकोतिका राघवपाण्डवीय, गतप्रत्यागत प्रकारका है जब कि धनंजयका द्विसन्धान इस प्रकारका नहीं, उसमें तो गत-प्रत्यागत प्रकारके एक दो पद्य ही प्राप्त है। इस प्रकार, जैसा स्पष्ट है, वीरसेनने नाममालासे एक पद्य उद्धृत किया है, और भोजने धनंजय और द्विसन्धानका उल्लेख किया है, श्रुतकीति और धनंजय एक सिद्ध नहीं होते। भण्डारकर द्वारा मान्य धनंजयका काल आर० जी० भण्डारकर ( रिपोर्ट आन द सर्च पार मैनुस्क्रिप्ट्स इन द बाम्बे प्रेसीडेंसो ड्युरिंग व इयरस १८८४-८५, १८८५-८६, तथा १८८६-८७, बम्बई, १८९४ ) ने पनंजय नामक एक दिगम्बर जैनके काव्यको दो प्रतियोंका उल्लेच किया है। उन्होंने जिला है कि प्रथम भागके अन्तिम पद्यमें रचयिताको कवि कहा गया है। उन्होंने बादके पद्य को भी उद्धृत किया है, जिसमें कहा गया है कि "अकलंक को तर्कपद्धति, पूज्यपादका व्याकरण और द्विसन्धान के कविका काव्य ये त्रिरत्न है।" उन्होंने यह कह कर निष्कर्ष निकाला है कि संस्कृत कोष का रचयिता द्विसन्धान का भी रचयिता है । "कान्यका प्रत्येक पद्य द्वयर्थक है, दो प्रकारको अर्थ-प्रस्तुतिको द्विसन्धान कहा जाता है।" उनके समक्ष काव्यको दो प्रतियाँ ( नवम्बर ११४२ और ११४३ ) रहीं जिनमें दूसनी प्रति नेमिचन्द्रको टोका सहित है। उन्होंने भी लिखा है कि बर्धमान ( संवत् ११७९-सन् ११४७ ) ने अपने गुणरत्न महोदधि ( १०.५१,

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