Book Title: Dvisandhan Mahakavya Author(s): Dhananjay Mahakavi, Khushalchand Gorawala Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 8
________________ प्रधान सम्पादकीय श्रुतकीर्तित्रविद्यवति राघवपाण्डवीय विबुधचमत्कृतियेनिसि गतप्रत्या गतदि तेल्दभळकोतियं प्रकटिसिदं ॥२५॥ ये दो पद्य श्रवणबेलगोलके एक शिलालेख संख्या ४० सी ६४, सन् ११६३ ई० में उद्धृत हैं । इन अतीति विद्यका उल्लेख तेरदालके ११२३ ईसवीके एक शिलालेखमें है पतु परवादीभपंचाननर सधर्म । श्रुतकीर्तित्रविद्यातिपर् षटुतर्ककर्कशह परवादिप्रतिभाप्रदीपपवनर् जतदोषर नेगळ्दरखिलभुवनान्तरदोळु । __ राजा गोंकने कोल्लागिरि या कोल्हापुरके माघनन्दि सैद्धान्तिकके (निम्ब सामन्तके गुरु) लिए भेजा पा तथा उनके साथी कनकनन्दो तथा श्रुतकीति अविद्य थे। कोल्हापुरसे प्राप्त ११३५ ईसवीके एक अन्य शिलालेख (एपिग्राफिया इंडिका, जिल्द १९, पृष्ठ ३०, जन शिलालेख संग्रह भाग ४, बनारस १९६४, पछ १६२.६६ ) में ध्रुतकीतिका उल्लेख कोल्हापुरकी रूपनारायया वसदिके आचार्य रूपमें हुआ है शकवर्षद सासिरदयवत्तेंटनेय राक्षससंवत्सरद कार्तिकबहुलपंचमिसोमवारदंदु श्रीमूळसंघदेसीयगण पुस्तकगारद कोल्लापुरद श्रीरूपनारायणवसदियाचाचरप्प श्रीश्रुतकीतिविध देवर कालं करि-इत्यादि । मागचन्द्रने उन्हें बती कहा है। उसी तरह तेरदाल शिलालेखमें भी। अर्थात् ११२३ ईसवी में वे व्रती ये फिन्तु ११३५ ईसवी में एक प्राचार्यको प्रप्तिधा प्राप्त कर चुके थे । विद्वानोंकी रायमें ( आर० नर. सिंहाचार्य, कर्नाटक कविचरित माग १, बेंगलोर १९६१, पृष्ठ ११० इ० ) नागचन्द्र ११०० ईसवीके । लगभग हुए। इसका तात्पर्य यह हुआ कि श्रुतकीतिका समय ११०० से ११५० ईसवीके मध्य अनुमानित किया जा सकता है। अभी तक उनके राघव-पाण्डयोयकी कोई पाण्डुलिपि उपलब्ध नहीं हुई। के० बी० पाठक धनंजय तथा श्रुतको तिकी एकता श्रुतकीतिके राघवपाण्डवीयसे निश्चित करनेवाले प्रथम व्यक्ति थे । आर० जी० भण्डारकरने इसे स्वीकार करने में संकोच ठीक ही व्यक्त किया है। किन्तु इस समानताके आधारपर प्रस्तावित धनंजयके समयकी बातमें पर्याप्त वजन है। धनंजय तथा उनका द्विसन्धान या राघव-पाण्डवीय श्रुतकीर्ति और उनके राघव-पाण्डवीयसे भिन्न है : सर्वप्रथम क्योंकि धनंजय एक गृहस्थ ये जब कि श्रुतकीर्ति एक प्रतिन् सथा बादमें एक आचार्य। दूसरे, न तो धनंजय ही न अन्य स्रोत जो श्रुतकीतिका उल्लेख करते है, ऐसा प्रमाण देते है कि दोनों नाम एक ही कधिके है। तीसरे धनंजयकी नाममालासे वीरसेन (८१६ ईसवी) ने एक पद्य उद्धृत किया है तथा उनके द्विसन्धानका विशेष रूपसे धनंजयके नामोल्लेखके साथ भोजने ( १०१०-६२ ईसवी अनुमानित) उल्लेख किया है, जब कि श्रुतकीतिका समय ११०० से ११५० ठहरता है। अन्ततः, पदि धनंजयका द्विसन्धान दण्डिको समकक्षताके लिए प्रसिद्ध है और भोज ( ग्यारहवीं शतीका मध्य ) के द्वारा उल्लेख किया जा सकता है तो निश्चय ही यह श्रुतकीर्ति, जो ११३५ ईसवी में आचार्य थे, को रचना नहीं हो सकती। इसलिए इस एकताका कोई आधार नहीं है, और इसलिए इस एकताके आधार पर धनंजयका समय ११२३.४० ईसवी निर्धारित नहीं किया जा सकता। धनंजयके अध्येता धनंजय तथा उनके द्विसन्धानने बहुत पहले से ही विद्वानोंका ध्यान आकर्षित किया है। यह आवश्यक है कि विस्तारसे उनके मन्तव्योंको यहाँ प्रस्तुत किया जाये तथा उपर्युक्त प्रमाण सामग्रीके सन्दर्भ में जांचापरखा जाये। पाठक द्वारा श्रुतकीति तथा धनंजयको एकता के० बी० पाठकने इंडियन एन्टीश्वेरो जिल्द १४, पृष्ठ १४.२६ में तेरदालके एक कनड़ी शिलालेखका का सम्पादन किया है। पैतीसवीं पंक्तिमें उन्हें श्रुतकीति विद्यका नाम मिला । अभिनव पम्पने श्रुतकीर्ति विद्यका उल्लेख राघवपाण्डवीयके लेखकके रूपमें किया है । मेषचन्द्रने समाधिशतक पर कन्नड भाषामें पम्पPage Navigation
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