Book Title: Dvisandhan Mahakavya Author(s): Dhananjay Mahakavi, Khushalchand Gorawala Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 6
________________ प्रधान सम्पादकीय २३ अनेकभेदसंघाना खनन्तो हृदये मुहुः । बाणा धनंजयोन्मुक्ताः कर्णस्यैव प्रियाः कथम् ॥ जैसा कि के० बी० पाठकने स्पष्ट किया है, दुर्गसिंह ( १०२५ ई० अनुमानित ) ने अपने कन्नड़ पंचतन्त्र ( मैसूर १८९८ ) में धनंजय राघवपाण्डवोयका इन शब्दों में उल्लेख किया है अनुपमकविवजं जी येने राघवपाण्डवीय पेळ यशो वनिताधीश्वरनादं धनंजयं वास्वप्रियं केवळ ||८|| डॉक्टर बी० एस० कुलकर्णी, धारवाड़, ने सूचित किया है कि द्वारा स्थित पंचतन्त्रको ताडपत्रीय प्रतिमें पूर्ववर्ती कवियों का उल्लेख करने वाले ये सब पद्म नहीं हूँ । विद्वानों में इस विषय में मतभेद है कि एक ही नागवर्मा हुए अथवा विभिन्न समयों में दो नागवर्मा ( ९९० तथा ११४५ ई० अनुमानित )। उनके बताये जाने वाले इस या उस प्रत्थोंके नामसे ( कर्णाटक कविचरित, बेंगलोर, १९६१, ०५३, ११४) व उनके छोम्बुधि ग्रन्थ में निम्नलिखित पद्य मिलते है । जितबाणं हरियंतधः कृतमधूरं तारकासतियंततिमात्रं शिशिरात्यदंते सुरपप्रोडकोदंडदे- । ते तिरोभूतगुणाढ्य नब्जवन दंताविर्भत्र डिभारत देता तधनंजय क विभवं वागांदोलना किगं ॥ यहाँ पूर्वकदियों में धनंजयका उल्लेख किया गया है। आर० नरसिंहाचार्यका मत है कि यह द्विसन्धान के रचयिता धनंजयका उल्लेख है, किन्तु ए० बेंकट तुव्वस्थाका मत है कि दशरूपककार धनंजयका उल्लेख अभिप्रेत है । जल्हण ( १२५७ ई० अनुमानित ) ने अपनी सूक्तिमुक्तावली में राजशेखर ( ९०० ई० अनुमानित ) के मुँह से धनंजय के विषय में निम्नलिखित पद्य कहा है ( गा० ओ० सी० सं०, ८२, बडोदा १९३८, पृष्ठ ४६ ) द्विसन्धाने निपुणतां सतां चक्रे धनंजयः । यया जातं फलं तस्य सतां चक्रे धनंजयः ॥ यह लेखक के नामका धन तथा जय रूपमें पृथक्करण ठीक वैसा ही है जैसा स्वयं धनंजयने अपने काव्य में किया है जैसा कि डॉ० हीरालाल जनने षड्खण्डागम धवलाटीका सहित, जिल्द १, अमरावती १९३८, प्रस्तावना पृ० ६२, वीरसेन्द्र ( वही जिल्द ६, पृ० १४ ) ते इति की व्याख्या में उपयोगी एक पद्य उधृत किया है। यह ठीक वैसा ही है जैसा धनंजयकृत नाममाला का ३९ व पञ्च । धनंजयका समय उपर्युक्त सन्दर्भ हमें चनंजयका समय निर्धारित करने में मदद करते हैं। अकलंक ( ७-८वीं शती ईसबो ) तथा वीरसेन जिन्होंने ८१६ ईसदी में अपनी धवला टीका पूर्ण की थी, के मध्यमें हुए । धनंजयका समय ८०० ईसवी अनुमानित निर्धारित किया जा सकता है। किसी भी प्रकार वह भोज ( ११वीं शती का मध्य) जिन्होंने स्पष्ट रूपसे उनका तथा उनके द्विसन्धानका उल्लेख किया है, से वादके नहीं हो सकते । द्विसन्धानकाव्य धनंजयकृत द्विसन्धानमें १८ सर्ग हैं तथा कुल श्लोक संख्या ११०५ जो कि विभिन्न छन्दोंमें लिखे गये हैं ( सूची अन्त में ) । प्रारम्भिक मंगल पद्य मुनिसुव्रत या नेमिका स्मरण किया है, उसके बाद सरस्वती की प्रशंसा की गयी है । दिगम्बर जैन लेखकोंकी यह सामान्य प्रवृत्ति है कि कथा राजा श्रेणिकके लिए गौतम द्वारा कही गयी बतायी जाती है । लेखकने घटनाओंके वर्णन को अपेक्षा विशिष्ट वर्णनों पर अधिक बल दिया है । अधिकांश लोक अलंकारयुक्त है और टीकाकारने उनको पूरी तरह अंकित किया है । अन्तिम अध्यायPage Navigation
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