Book Title: Drushtant Kathao
Author(s): Shrimad Rajchandra, Hansraj Jain
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 12
________________ भावनाबोध - अशरणभावना अन्यको भी रौद्र भय उत्पन्न करानेवाली उस अत्यंत-परम दारुण वेदनासे मैं बहुत शोकात था। शारीरिक विद्यामें निपुण, अनन्य मंत्रमूलके सुज्ञ वैद्यराज मेरी उस वेदनाका नाश करनेके लिए आये; अनेक प्रकारके औषधोपचार किये, परंतु वे वृथा गये। वे महानिपुण गिने जानेवाले वैद्यराज मुझे उस रोगसे मुक्त नहीं कर सके। हे राजन् ! यही मेरी अनाथता थी। मेरी आँखोंकी वेदनाको दूर करनेके लिए मेरे पिता सारा धन देने लगे, परन्तु उससे भी मेरी वह वेदना दूर नहीं हुई। हे राजन् ! यही मेरी अनाथता थी। मेरी माता पुत्रके शोकसे अति दुःखार्त हुई, परन्तु वह भी मुझे उस रोगसे नहीं छुडा सकी, हे महाराजा ! यही मेरी अनाथता थी। एक उदरसे उत्पन्न हुए मेरे ज्येष्ठ एवं कनिष्ठ भाई भरसक प्रयत्न कर चुके, परंतु मेरी वेदना दूर नहीं हुई; हे राजन् ! यही मेरी अनाथता थी। एक उदरसे उत्पन्न हुई मेरी ज्येष्ठा एवं कनिष्ठा भगिनियोंसे मेरा दुःख दूर नहीं हुआ। हे महाराजा ! यही मेरी अनाथता थी। मेरी स्त्री जो पतिव्रता, मुझपर अनुरक्त और प्रेमवती थी, वह अश्रुपूर्ण आँखोंसे मेरे हृदयको सींचती और भिगोती थी। उसके अन्न-पानी देनेपर और नाना प्रकारके उबटन, चूवा आदि सुगंधी द्रव्य तथा अनेक प्रकारके फूल-चंदनादिके ज्ञात अज्ञात विलेपन किये जानेपर भी मैं उस यौवनवती स्त्रीको भोग नहीं सका। जो मेरे पाससे क्षणभर भी दूर नहीं रहती थी, अन्यत्र जाती नहीं थी, हे महाराजा! ऐसी वह स्त्री भी मेरे रोगको दूर नहीं कर सकी, यही मेरी अनाथता थी। यों किसीके प्रेमसे, किसीकी औषधिसे, किसीके विलापसे या किसीके परिश्रमसे वह रोग उपशांत नहीं हुआ। मैंने उस समय पुनः पुनः असह्य वेदना भोगी। फिर मैं अनंत संसारसे खिन्न हो गया। यदि एक बार मैं इस महाविडंबनामय वेदनासे मुक्त हो जाऊँ तो खंती, दंती और निरारंभी प्रव्रज्याको धारण करूँ, यों चिन्तन करता हुआ मैं शयन कर गया। जब रात्रि व्यतीत हो गयी तब हे महाराजा ! मेरी उस वेदनाका क्षय हो गया; और मैं नीरोग हो गया। मात, तात और स्वजन, बांधव आदिसे प्रभातमें पूछकर मैंने महाक्षमावान, इन्द्रिय-निग्रही और आरंभोपाधिसे रहित अनगारत्वको धारण किया। तत्पश्चात् मैं आत्मा परात्माका नाथ हुआ। सर्व प्रकारके जीवोंका मैं नाथ हूँ।" अनाथी मुनिने इस प्रकार उस श्रेणिकराजाके मनपर अशरण भावनाको दृढ किया। अब उसे दूसरा अनुकूल उपदेश देते हैं "हे राजन् ! यह अपना आत्मा ही दुःखसे भरपूर वैतरणीको करनेवाला है। अपना आत्मा ही क्रूर शाल्मली वृक्षके दुःखको उत्पन्न करनेवाला है। अपना आत्मा ही मनोवांछित वस्तुरूपी दूध देनेवाली कामधेनु गायके सुखको उत्पन्न करनेवाला है। अपना आत्मा ही नंदनवनकी भाँति आनंदकारी है। अपना आत्मा ही कर्मका करनेवाला है। अपना आत्मा ही उस कर्मको दूर करनेवाला है। अपना आत्मा ही दु:खोपार्जन करनेवाला है। अपना आत्मा ही सुखोपार्जन करनेवाला है। अपना आत्मा ही मित्र और अपना आत्मा ही वैरी है। अपना आत्मा ही निकृष्ट आचारमें स्थित और अपना आत्मा ही निर्मल आचारमें स्थित रहता है।" इस प्रकार तथा अन्य अनेक प्रकारसे उस अनाथी मुनिने श्रेणिक राजाको संसारकी अनाथता कह सुनायी। इससे श्रेणिकराजा अति संतुष्ट हुआ। वह अंजलिबद्ध होकर यों बोला, “हे भगवन् ! आपने मुझे भलीभाँति उपदेश दिया। आपने जैसी थी वैसी अनाथता कह सुनायी। हे महर्षि ! आप सनाथ,

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