Book Title: Drushtant Kathao
Author(s): Shrimad Rajchandra, Hansraj Jain
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 10
________________ भावनाबोध-अशरणभावना शोकमय हैं। ऐसा विचार करके बुद्धिमान पुरुष आत्मश्रेयको खोजते हैं। इति श्री 'भावनाबोध' ग्रन्थके प्रथम दर्शनका प्रथम चित्र 'अनित्यभावना' इस विषयपर सदृष्टान्त वैराग्योपदेशार्थ समाप्त हुआ। द्वितीय चित्र अशरणभावना (उपजाति) सर्वज्ञनो धर्म सुशर्ण जाणी, आराध्य आराध्य प्रभाव आणी । अनाथ एकांत सनाथ थाशे, एना विना कोई न बांह्य स्हाशे ॥ विशेषार्थ—सर्वज्ञ जिनेश्वरदेवके द्वारा निःस्पृहतासे उपदिष्ट धर्मको उत्तम शरणरूप जानकर, मन, वचन और कायाके प्रभावसे हे चेतन ! उसका तू आराधन कर, आराधन कर। तू केवल अनाथरूप है सो सनाथ होगा। इसके बिना भवाटवीभ्रमणमें तेरी बाँह पकडनेवाला कोई नहीं है। जो आत्मा संसारके मायिक सुखको या अवदर्शनको शरणरूप मानते हैं, वे अधोगतिको प्राप्त करते हैं, तथा सदैव अनाथ रहते हैं, ऐसा बोध करनेवाले भगवान अनाथी मुनिका चरित्र प्रारम्भ करते हैं, इससे अशरणभावना सुदृढ होगी। अनाथी मुनि दृष्टान्त-अनेक प्रकारकी लीलाओंसे युक्त मगध देशका श्रेणिक राजा अश्चक्रीडाके लिए मंडिकुक्ष नामके वनमें निकल पडा । वनकी विचित्रता मनोहारिणी थी। नाना प्रकारके तरुकुञ्ज वहाँ नजर आ रहे थे, नाना प्रकारकी कोमल वल्लिकाएँ घटाटोप छायी हुई थीं; नाना प्रकारके पक्षी आनन्दसे उनका सेवन कर रहे थे; नाना प्रकारके पक्षियोंके मधुर गान वहाँ सुनायी दे रहे थे; नाना प्रकारके फूलोंसे वह वन छाया हुआ था; नाना प्रकारके जलके झरने वहाँ बह रहे थे; संक्षेपमें सृष्टिसौंदर्यका प्रदर्शनरूप होकर वह वन नंदनवनकी तुल्यता धारण कर रहा था। वहाँ एक तरुके नीचे महान समाधिमान पर सुकुमार एवं सुखोचित मुनिको उस श्रेणिकने बैठे हुए देखा। उनका रूप देखकर वह राजा अत्यन्त आनन्दित हुआ। उस अतुल्य उपमारहित रूपसे विस्मित होकर मनमें उनकी प्रशंसा करने लगा-“अहो ! इस मुनिका कैसा अद्भुत वर्ण है ! अहो ! इसका कैसा मनोहर रूप है ! अहो ! इस आर्यकी कैसी अद्भुत सौम्यता है ! अहो ! यह कैसी विस्मयकारक क्षमाके धारक है ! अहो ! इसके अंगसे वैराग्यकी कैसी उत्तम स्फुरणा है ! अहो! इसकी कैसी निर्लोभता मालूम होती है ! अहो! यह संयति कैसा निर्भय अप्रभुत्व-नम्रता

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