Book Title: Drushtant Kathao
Author(s): Shrimad Rajchandra, Hansraj Jain
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 16
________________ भावनाबोध - एकत्वभावना नमिराज-हे विप्र! अज्ञानी मनुष्य अनेक बार मिथ्या दंड देते हैं। चोरी न करनेवाले जो शरीरादिक पुद्गल हैं वे लोकमें बाँधे जाते हैं; और चोरी करनेवाले जो इन्द्रियविकार हैं उन्हें कोई बाँध नहीं सकता। तो फिर ऐसा करनेकी क्या आवश्यकता? विप्र-हे क्षत्रिय ! जो राजा तेरी आज्ञाका पालन नहीं करते हैं और जो नराधिप स्वतंत्रतासे चलते हैं उन्हें तू अपने वशमें करनेके बाद जाना। नमिराज-(हेतु-कारण-प्रे०) दस लाख सुभटोंको संग्राममें जीतना दुष्कर गिना जाता है; तो भी ऐसी विजय करनेवाले पुरुष अनेक मिल जाते हैं, परन्तु एक स्वात्माको जीतनेवाला मिलना अत्यन्त दुर्लभ है। उन दस लाख सुभटोंपर विजय पानेवालेकी अपेक्षा एक स्वात्माको जीतनेवाला पुरुष परमोत्कृष्ट है। आत्माके साथ युद्ध करना उचित है। बहियुद्धका क्या प्रयोजन है ? ज्ञानरूप आत्मासे क्रोधादि युक्त आत्माको जीतनेवाला स्तुतिपात्र है। पाँचों इन्द्रियोंको, क्रोधको, मानको, मायाको तथा लोभको जीतना दुष्कर है। जिसने मनोयोगादिको जीता उसने सबको जीता। विप्र—(हेतु-कारण-प्रे०) समर्थ यज्ञ करके, श्रमण, तपस्वी, ब्राह्मण आदिको भोजन देकर, सुवर्ण आदिका दान देकर, मनोज्ञ भोगोंको भोगकर हे क्षत्रिय ! तू बादमें जाना। नमिराज-(हेतु-कारण-प्रे०) हर महीने यदि दस लाख गायोंका दान दे तो भी उस दस लाख गायोंके दानकी अपेक्षा जो संयम ग्रहण करके संयमकी आराधना करता है, वह उसकी अपेक्षा विशेष मंगल प्राप्त करता है। विप्र-निर्वाह करनेके लिए भिक्षासे सुशील प्रव्रज्यामें असह्य परिश्रम सहना पडता है; इसलिए उस प्रव्रज्याका त्याग करके अन्य प्रव्रज्यामें रुचि होती है; इसलिए इस उपाधिको दूर करनेके लिए तू गृहस्थाश्रममें रहकर पौषधादि व्रतमें तत्पर रहना । हे मनुष्याधिपति ! मैं ठीक कहता हूँ। नमिराज-(हेतु-कारण-प्रे०) हे विप्र! बाल अविवेकी चाहे जैसा उग्र तप करे परंतु वह सम्यक्श्रुतधर्म तथा चारित्रधर्मके तुल्य नहीं हो सकता। एकाध कला सोलह कलाओं जैसी कैसे मानी जाय? विप्र-अहो क्षत्रिय ! सुवर्ण, मणि, मुक्ताफल, वस्त्रालंकार और अश्वादिकी वृद्धि करके पीछे जाना। नमिराज-(हेतु-कारण-प्रे०) मेरु पर्वत जैसे कदाचित् सोने-चाँदीके असंख्यात पर्वत हों तो भी लोभी मनुष्यकी तृष्णा नहीं बुझती। वह किंचित् मात्र संतोषको प्राप्त नहीं होता। तृष्णा आकाश जैसी अनंत है। धन, सुवर्ण, चतुष्पाद इत्यादिसे सकल लोक भर जाये इतना सब लोभी मनुष्यकी तृष्णा दूर करनेके लिए समर्थ नहीं है । लोभकी ऐसी निकृष्टता है । इसलिए संतोषनिवृत्तिरूप तपका विवेकी पुरुष आचरण करते हैं। विप्र—(हेतु-कारण-प्रे०) हे क्षत्रिय ! मुझे अद्भुत आश्चर्य होता है कि तू विद्यमान भोगोंको छोडता है। फिर अविद्यमान कामभोगके संकल्प-विकल्प करके भ्रष्ट होगा। इसलिए इस सारी मुनित्वसंबंधी उपाधिको छोड। . १०

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