Book Title: Drushtant Kathao
Author(s): Shrimad Rajchandra, Hansraj Jain
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

View full book text
Previous | Next

Page 40
________________ भावनाबोध - लोकस्वरूपभावना प्राणियोंके प्राण लिये एक बार अपने संगति समुदायको लेकर उसने एक महानगरको लूटा। दृढप्रहारी एक विप्रके घर बैठा था । उस विप्रके यहाँ बहुत प्रेमभावसे क्षीरभोजन बना था । उस क्षीरभोजनके भाजनको उस विप्रके मनोरथी बाल-बच्चे घेरे बैठे थे। दृढप्रहारी उस भाजनको छूने लगा, तब ब्राह्मणीने कहा, "हे मूर्खराज ! इसे क्यों छूता है ? यह फिर हमारे काम नहीं आयेगा, इतना भी तू नहीं समझता ?" दृढप्रहारीको उन वचनों से प्रचंड क्रोध आ गया और उसने उस दीन स्त्रीको मौतके घाट उतार दिया। नहाता नहाता ब्राह्मण सहायताके लिए दौड आया, उसे भी उसने परभवको पहुँचा दिया। इतनेमें घरमेंसे गाय दौड़ती हुई आयी, और वह सींगोंसे दृढप्रहारीको मारने लगी। उस महादुष्टने उसे भी कालके हवाले कर दिया। उस गायके पेटमेंसे एक बछडा निकल पडा; उसे तडफडाता देखकर दृढप्रहारीके मनमें बहुत बहुत पश्चात्ताप हुआ। "मुझे धिक्कार है कि मैंने महाघोर हिंसाएँ कर डालीं। मेरा इस महापापसे कब छुटकारा होगा ? सचमुच ! आत्मकल्याण साधनेमें ही श्रेय है !” । ऐसी उत्तम भावनासे उसने पंचमुष्टि केशलुंचन किया । नगरके द्वार पर आकर वह उग्र कायोत्सर्गमें स्थित रहा। वह पहिले सारे नगरके लिए संतापरूप हुआ था, इसलिए लोग उसे बहुविध संताप देने लगे। आते जाते हुए लोगोंके धूल ढेलों, ईंट-पत्थरों और तलवारकी मूठोंसे वह अति संतापको प्राप्त हुआ। वहाँ लोगोंने डेढ महीने तक उसे तिरस्कृत किया, फिर थके और उसे छोड़ दिया। दृढप्रहारी वहाँसे कायोत्सर्ग पूरा कर दूसरे द्वार पर ऐसे ही उग्र कायोत्सर्गमें स्थित रहा। उस दिशाके लोगोंने भी उसी तरह तिरस्कृत किया, डेढ महीने तक छेडछाड कर छोड दिया । वहाँसे कायोत्सर्ग पूरा कर दृढप्रहारी तीसरे द्वार पर स्थित रहा । वहाँके लोगोंने भी बहुत तिरस्कृत किया। डेढ महीने बाद छोड देनेसे वह वहाँसे चौथे द्वार पर डेढ मास तक रहा। वहाँ अनेक प्रकारके परिषह सहन करके वह क्षमाधर रहा। छठे मासमें अनंत कर्म-समुदायको जलाकर उत्तरोत्तर शुद्ध होकर वह कर्मरहित हुआ। सर्व प्रकारके ममत्वका उसने त्याग किया। अनुपम केवलज्ञान पाकर वह मुक्तिके अनंत सुखानंदसे युक्त हो गया। वह निर्जराभावना दृढ हुई। अब दशम चित्र लोकस्वरूपभावना 1 लोकस्वरूपभावना - इस भावनाका स्वरूप यहाँ संक्षेपमें कहना है जैसे पुरुष दो हाथ कमरपर रखकर पैरोंको चौड़ा करके खडा रहे, वैसा ही लोकनाल किंवा लोकस्वरूप जानना चाहिये। वह लोकस्वरूप तिरछे थालके आकारका है । अथवा खडे मर्दलके समान है। नीचे भवनपति, व्यंतर और सात नरक है। मध्य भागमें अढाई द्वीप है ऊपर बारह देवलोक, नव ग्रैवेयक, पाँच अनुत्तर विमान और उन पर अनंत सुखमय पवित्र सिद्धोंकी सिद्धशिला है। यह ३४

Loading...

Page Navigation
1 ... 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68