________________
सम्पादकाय
अनुयोगद्वार सूत्र का अध्ययन करते समय एक वाक्य पर ध्यान केन्द्रित हुआ--दीवसमा आयरिया-आचार्य दीपक के समान होते हैं। मैंने सोचा-आचार्य का स्थान बहुत ऊंचा होता है। उनको सूर्य और चन्द्रमा की उपमा दी जा सकती है। समुद्र और धरती की उपमा दी जा सकती है। यह दीपक की क्या उपमा? दीपक तो कोई भी बन सकता है। फिर सोचा-आगम का एक भी अक्षर निरर्थक नहीं हो सकता। आगमकार विशिष्ट ज्ञानी थे। अंग-आगमों की रचना तीर्थंकरों की देशना के आधार पर होती है। उनका वचन स्वतः प्रमाण होता है। उपांगों के रचनाकार स्थविर और आचार्य होते हैं। अनुयोगद्वार का स्थान मूल आगम में है। इसमें आचार्य आर्यरक्षित का कर्तृत्व है। वे पूर्वधर आचार्य थे। उन्होंने जो लिखा है, उसका निश्चित रूप से गंभीर अर्थ होना चाहिए। इस विचार यात्रा में मैंने पूरे सन्दर्भ को पढ़ा
जह दीवा दीवसयं पदिप्पए, सो य दिप्पए दीवो।
दीवसमा आयरिया, दीप्पंति परं च दीवेंति॥ एक दीपक से सैकड़ों दीपक जल उठते हैं। इतने दीपकों को प्रज्यलित करने पर भी उस दीपक का तेज मन्द नहीं होता। वह पूरी तरह से दीप्त रहता है। आचार्य दीपक के समान स्वयं दीप्तिमान रहते हैं और दूसरों को भी दीपित करते रहते हैं।
दीपक जलकर प्रकाश फैलाता है, यह काम सरल नहीं है। पर अपने तेज से दीपकों की एक लम्बी कतार को दीप्तिमान् बना देना बहुत महत्त्वपूर्ण काम है। आचार्य के पास ज्ञान, दर्शन और चारित्र की जो विलक्षण दीप्ति होती है, उसे वे सैकड़ों की सीमा से पार लाखों-करोड़ों व्यक्तियों में संप्रेषित
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org