Book Title: Diye se Diya Jale
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 7
________________ स्वकथ्य मनुष्य के भीतर विश्वास की अकूत सम्पदा है, पर वह उसका उपयोग नहीं कर रहा है। उसके भीतर अपरिसीम आनन्द है, पर वह उसका अनुभव नहीं कर रहा है। उसके भीतर अन्तहीन शक्तियों का खजाना है, पर वह उसे खोज नहीं पाया है। उसके भीतर अपरिमित आलोक है, पर उसकी आंखें उसे देख नहीं पाई हैं। वह अंधेरे में खड़ा है। उसके चारों ओर सन्देह, भय, अभाव कष्ट और त्रासदी की कंटीली झाडियां बिछी हई हैं। वह भ्रान्तियों के घेरे में खड़ा है, इसलिए अस्थिरता का जीवन जी रहा है। किसी व्यक्ति के प्रति क्या, विचार के प्रति भी उसका मन आश्वस्त नहीं है। इसी कारण वह अत्राण और अशरण बन रहा है। अविश्वास के इस युग में भी मैंने अपने विश्वास को बद्धमूल रूप में सुरक्षित रखा है। मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि काल और क्षेत्र की सीमाएं तथा परिस्थितियों का दबाव अध्यात्म एवं मानवीय मूल्यों की मूल्यवत्ता को कम नहीं कर सकता। जब तक अध्यात्म और मानवीय मूल्य जीवित हैं तब तक ही जीवन है। इनके अभाव में जीने वाले मनुष्यता की लाश को ढो सकते हैं, उसे जी नहीं सकते। इस संसार में जीवित व्यक्ति अधिक हैं या मृत? इस प्रश्न का सीधा उत्तर दिया जा सकता है, पर मैं देना नहीं चाहता। जीवित व्यक्ति वे हैं, जो आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों को जीते हैं। जिनके जीवन में इन मूल्यों को स्थान नहीं है, वे जीते हुए भी मृत हैं। कवि ने लिखा है यस्य धर्मविहीनानि, दिनान्यायान्ति यान्ति च। स लोहकारभस्त्रेव, श्वसन्नपि न जीवति ॥ जीवन के दिन अंजुरी में भरे जल या मुट्ठी में भरी रेत की तरह फिसलते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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