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[ ] वती आराधना में मुनि के उत्सर्ग और अपवाद मार्ग का विधान है, जिसके अनुसार मुनि वस्त्र धारण कर सकता है। देखो गाथा ( ७६-८३)।
२–तत्वार्थ सूत्र में पांच प्रकार के निर्ग्रन्थों का निर्देश किया गया है जिनका विशेष स्वरूप सर्वार्थसिद्धि व राजवार्तिक टीका में समझाया गया है। ( देखो अध्याय ६ सूत्र ४६-४७)। इसके अनुसार कहीं भी वस्त्रत्याग अनिवार्य नहीं पाया जाता। बल्कि वकुश निर्ग्रन्थ तो शरीर संस्कार के विशेष अनुवर्ती कहे गये हैं। यद्यपि प्रतिसेवना कुशील के " मूल गुणों की विराधना न होने का उल्लेख किया गया है, तथापि द्रव्यलिंग से पांचों ही निर्ग्रन्थों में विकल्प स्वीकार किया गया है ''भावलिगं प्रतीत्य पंच निग्रन्था लिंगिनो भवन्ति द्रव्यलिंगं प्रतीत्य भाज्या (तत्वार्थसूत्र अ० ६ सू० ४७ २.० स०) इसका टीकाकारों ने यही अर्थ किया है कि कभी कभी मुनि वस्त्र भी धारण कर सकते हैं। मुक्ति भी सग्रन्थ और निग्रंथ दोनों लिंगों से कही गही गई है। निर्ग्रन्थलिंगन सग्रन्थलिगेन वा सिद्धिभूतपूर्वनयापेक्षया ।” ( तत्वार्थसूत्र अ० १०, सू० ६, स० सि०)। यहां भूतपूर्वनय का अभिप्राय सिद्ध होने से अनन्तर पूर्व का है।
३-धवलाकार ने प्रमत्त संयतों का स्वरूप बतलाते हुए जो संयम की परिभाषा दी है उसमें केवल पांच नतों के पालन का ही उल्लेख है "संयमो नाम हिसानृतस्तेयाब्रह्मपरिआहेभ्यो विरतिः।"