Book Title: Digambar Jain Sadhu Parichaya Author(s): Dharmchand Jain Publisher: Dharmshrut Granthmala View full book textPage 5
________________ HallqiZRU अरन्त :- इंदसदवंदियाणं तिहुअणहिदमधुरविसदवक्काणं। अंतातीदगुणाणं णमो जिणाण जिदभवाणं ॥१॥ रिलोकस्थ जीवों के लिए हितकारी मधुर एवं रिशद वचनों से युक्त,अनन्त गुणों के धारक,चतुर्गतिरुप संसार के रिजेता,शतेन्द्र वन्दनीय जिन-अरहन्त भगवान को में रमस्कार करता है। - सिद्ध: अट्टविहकम्ममुक्के,अटगुणड्डे अणोवमे सिद्धे। अट्टमपुढविणिविटे, णिद्वियकज्जे य दिमो णिच्चं ॥२॥ योग्य कार्य जो कर चुके हैं। सिद्ध भगवान को मैं नित्य नमस्कार करता हूं। अष्टकर्मा से मुक्त, अष्टगुण संयुक्त, अन्एपम, अष्टममी में स्थित कृतकृत्य (कटने आचार्य:- गयणमिव णिरुवलेवा अक्खोहा सायरुव्व मुणिवसहा! एरिसगुणणिलयाणं पायं पणमामि सद्धमणो ॥३॥ आकाशवन लिनेए एर सागरवर क्षोभ से रहित मुनिवृषभ-श्रेष्ठ आचार्य परमेष्ठी के चरणकमरे में शुद्ध मन से नमस्कार करता हूं। उपाध्याय: जो रयणत्तयजुत्तो णिच्चं धम्मोवदेसणे णिरदो। सो विज्झाओ अप्पा जदिवरवसहो णमो तस्स॥४॥ नित्य ही धर्मोपदेश में तत्पर, मुनिवरों में प्रधान, रत्नरय संयुक्त उपाध्याय पररेणी को नमस्कार हो। साधु: दोदोसविप्पमुक्के तिदंडविरदे तिसल्लपरिसुद्धे। तिण्णिमगारवरहिदे, पंचिंदियणिज्जिदे वंदे ॥५॥ राग-द्वेष से रिप्रमुस्तमन-वचन-कायकी प्रवृत्ति रुप) त्रिदंडसेरिरहित,(माया -मिथ्या-निदानस्प) त्रिशल्य से परिशद अत्यन्त रिटहित),(रस,ऋद्धि, गारवरूपत्रिभारव से रहित, पंचेन्द्रिय विजेता मुनिजनों को मैं नमस्कार करता है। परमेष्ठी :- अरुहा सिद्धाइरिया उवज्झाया साह पंचपरमेट्टी। एयाण णमुक्कारो भवे भवे मम सुहं दितु ॥६॥ अरहन्त,सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और आप इन पंचपरमेष्ठी के लिए किया गया नमस्कार मुझे भव भर में सुरर देखें।Page Navigation
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