Book Title: Dhyanyog Pratham aur Antim Mukti
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 14
________________ भूमिका लिए' मुक्ति पाने का प्रयास भी नहीं है। ही बड़बड़ा रहा हो-दैनंदिन कार्यों में हम जाता है, परंतु ध्यान के अभाव में मन हममें ऐसे कितने लोग हैं जो अपने आपको संलग्न हैं तब भी? अपने शोरगुल से हमें गुलाम बनाए रखता दैनंदिन जीवन की आपाधापी और तनावों इस बात को स्पष्ट करने के लिए एक है। लेकिन ध्यान की विधियों की बहुलता से मुक्त कर किसी ऐसी स्थिति या छोटा-सा प्रयोग करें। इस पुस्तक को कुछ तथा उनकी अस्पष्टता के कारण उनकी आदर्शलोक में होने की कामना करते हैं जो समय के लिए अलग रख दें और आंखें अप्रासंगिता हमें अक्सर भ्रांति में डाल देती विश्रामपूर्ण और स्वयं होने में सहायता कर बंद कर लें। देखें कि आप कितनी देर चारों है। ओशो ने इन विधियों की अशुद्धियों को सके ? मेरे अनुभवों ने यह स्पष्ट किया है ओर की आवाजों को सुनते हुए और अपने छांटकर अपने हाथों शुद्ध और सही कि जिस मुक्ति की हम खोज कर रहे हैं, शरीर के बोध का आनंद लेते हुए बस विधियां बनाई हैं; उनके अंतर्तम रहस्यों का वह किसी बाहरी बात पर आधारित नहीं सहज बैठे रह सकते हैं। संभावना है कि भेदन करके हमें उनकी सार-सूत्र-कुंजी है। तो वह मुक्ति क्या है, जिसकी हम यह समय ज्यादा लम्बा न होगा, शायद प्रदान की है, जो हमारी कल्पना के परे अभीप्सा कर रहे हैं? एक मिनट मात्र और आपका मन बातचीत अस्तित्व के रहस्य का द्वार खोल सकती मैंने सुना है कि ओशो ने इस स्थिति को शुरू कर देगा। यदि आप कुछ देर बैठे है। यह कुंजियों की कुंजी-महा कुंजी है: "सिर्फ मुक्ति" कहा है-अभी और यहां और ध्यान दें कि भीतर क्या चल रहा है तो साक्षीभाव देखने की एक सहज और जीना-क्षण-क्षण; न तो अतीत की आप चकित हो जायेंगेः आप पायेंगे कि प्रगाढ़ अवस्था जिसमें, जैसे हम हैं, स्मृतियों के बोझ में जीना, न भविष्य की अनेक असंगत अंतर्वार्ताओं को आप चला उसका पूरा स्वीकार है। कल्पनाओं में जीना। ओशो ने कहा हैः रहे हैं। यदि आप किसी दूसरे व्यक्ति को ओशो हमें समझाते हैं कि ः __“खाते समय बस खाओ; उसमें इन्हीं बातों को जोर से बोलते हुए सुनें तो “साक्षी का सीधा-सरल अर्थ होता तल्लीन रहो। चलते समय बस आप उसे विक्षिप्त समझेंगे। यह सतत चल है-आग्रहशून्य तटस्थ अवलोकन; यहीं चलो-उसी क्षण में बने रहो। उस क्षण के रही भीतर की बातचीत हमें जीवन से तोड़ है ध्यान का पूरा रहस्य।" 3 आगे मत जाओ; यहां-वहां मत उछलो। देती है और प्रतिपल जीवन से मिलने वाले वास्तव में यह इतना सरल है कि मैं इसे मन या तो हमेशा आगे-आगे चलता है या आनंद का भोग करने से हमें वंचित कर वर्षों तक चूकता रहा। हम सब निश्चय ही पीछे घसिटता रहता है। वर्तमान क्षण में देती है। ऐसा सोचते हैं कि हम जानते हैं कि टिके रहो।" 2 तो क्या किया जाये इस बड़बड़ाहट के देखना, साक्षीभाव क्या है, क्योंकि हम ओशो मन के बारे में जो कह रहे हैं, साथ जो हमारे वश में नहीं है, और जो हमें अपने चारों ओर घटित हो रही चीजों का उसका हममें से अनेकों को अनुभव है। जीवन के अमूल्य क्षणों से तोड़ती है, उनसे अवलोकन करते हैं। हम टेलीविजन देखते मन या तो हमेशा आगे-आगे कूदता रहता हमें वंचित रखती है? मैंने ओशो को हैं; हम अन्य लोगों को पास से गुजरते है या पीछे घसिटता रहता है, लेकिन यह बारंबार यह कहते हुए सुना है कि ध्यान में देखते हैं और नोट करते हैं कि वे कैसे कभी वर्तमान क्षण में नहीं होता। वह एक डूबो। मैंने सुना है उन्हें यह कहते हुए कि कपड़े पहने हुए हैं, वे कैसे लगते हैं, सतत बड़बड़ाहट है। जब यह बड़बड़ाहट हम इस बड़बड़ाते हुए मन को सीधे बंद लेकिन सामान्यतः हम स्वयं का चलती है, तब यह हमें वर्तमान में होने नहीं कर सकते, लेकिन ध्यान के द्वारा मन अवलोकन नहीं करते। यदि हम स्वयं को और जीवन को उसकी पूर्णता में जीने से का शोरगुल थोड़ा धीमा हो जाता है और देखते भी हैं, तो वह बहुधा मनोग्रस्त वंचित कर देती है। हम कैसे समग्रतापूर्वक अंततः विलीन हो जाता है। मूल्यांकन होता है। हम अपने बारे में कोई जी सकते हैं जब हमारा मन स्वयं के साथ ध्यान से मन एक उपयोगी उपकरण बन ऐसी बात सोच निकालते हैं, जो हमें पसंद

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