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ध्यान के विषय में
ध्यान क्या
साक्षी है ध्यान की आत्मा
ध्यान अभियान है— सबसे बड़ा अभियान जिस पर मनुष्य का मन निकल सकता है। ध्यान है बस होना— कुछ भी न करते हुए — कोई क्रिया नहीं, कोई विचार नहीं, कोई भाव नहीं। तुम बस हो । और यह एक खालिस आनंद है। कहां से आता है यह आनंद जब तुम कुछ भी कर नहीं रहे हो ? यह आता है न-कहीं से या कि आता है सब कहीं से । यह अकारण है, क्योंकि यह अस्तित्व बना है उस तत्व से जिसे कहते हैं आनंद । ।
से—किसी भी तल पर नहीं— जब समस्त क्रियाएं शून्य हैं और तुम बस हो, स्व मात्र — यह है ध्यान । तुम उसे 'कर' नहीं सकते; उसका अभ्यास नहीं हो सकता; तुम उसे समझ भर सकते हो।
जब कभी तुम्हें मौका मिले बस होने का, तब सब क्रियाएं गिरा देना। सोचना भी क्रिया है, एकाग्रता भी क्रिया है और
"ब तुम कुछ भी नहीं कर रहे मनन भी । यदि एक क्षण के लिए भी तुम अक्रिया में हो, बस 'स्व' में हो - परिपूर्ण विश्राम में - यह है ध्यान। और एक बार तुम्हें इसका गुर मिल जाए, फिर तुम इसमें जितनी देर रहना चाहो, रह सकते हो । अंततः चौबीस घंटे ही इसमें रहा जा सकता
है।
एक बार तुम्हें अंतस के अकंपित रहने का बोध हो जाए, फिर तुम धीरे-धीरे कर्म करते हुए भी यह होश रख सकते हो कि
है ?
तुम्हारा अंतस निष्कंप बना रहता है। यह ध्यान का दूसरा आयाम है। पहले सीखो कि कैसे बस होना है; फिर छोटे-छोटे करते हुए, स्नान लेते हुए स्व से जुड़े रहो। ' कार्य करते हुए इसे साधोः फर्श साफ
फिर तुम जटिल कामों के बीच भी इसे साध सकते हो।
उदाहरण के लिए मैं तुमसे बोल रहा हूं, लेकिन मेरा ध्यान खंडित नहीं हो रहा है। मैं बोले चला जा सकता हूं, लेकिन मेरे अंतस केंद्र पर एक तरंग भी नहीं उठती, वहां बस मौन है, गहन मौन ।
इसलिए ध्यान कर्म के विपरीत नहीं है । ऐसा नहीं है कि तुम्हें जीवन को छोड़कर भाग जाना है। यह तो तुम्हें एक नये ढंग से जीवन को जीने की शिक्षा देता है। तुम झंझावात के शांत केंद्र बन जाते हो । तुम्हारा जीवन गतिमान रहता है— पहले से अधिक प्रगाढ़ता से अधिक आनंद से, अधिक स्पष्टता से, अधिक अंतर्दृष्टि और
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