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की यशोगाथा का वर्णन करता है। इसमें मूलराज से लेकर कुमारपाल तक का जीवनवृत्त दिया गया है। इस प्रकार 'सिद्धहैमशब्दानुशासन' में संस्कृत व्याकरण तथा प्राकृत व्याकरण दोनों के उदाहरण दिये गए हैं। हेमचन्द्र के व्याकरण में वार्तिक नहीं हैं। जैन शाकटायन का अनुसरण करते हुए हेमचन्द्र ने कात्यायन के वार्तिकों के कथ्य को सूत्रों के रूप में ही स्थान प्रदान कर दिया है।
हैम-व्याकरण की रचना शैली कातन्त्र-व्याकरण का विशेष प्रभाव दिखाई देता है। कातन्त्र-व्याकरण की रचनाशैली का ही अनुसरण करते हुए आचार्य हेमचन्द्र अपने शब्दानुशासन को प्रकरणानुसारी बनाया है। इसमें क्रमश: संज्ञा, स्वरसंधि, व्यञ्जनसन्धि, परिभाषा, नाम, कारक, षत्व, णत्व, स्त्रीप्रत्यय, समास, आख्यात, कृदन्त और तद्धित प्रकरण दिये गये हैं। सिद्धहैमशब्दानुशासन' के तृतीय अध्याय के दो पादों (द्वितीय एवं तृतीय) तथा चतुर्थ अध्याय में क्रियारूपों का प्रतिपादन किया गया है। हैम-व्याकरण पर जैनेन्द्र तथा शाकटायन का भी बहुत प्रभाव है। हेमचन्द्र ने अन्य संस्कृत व्याकरण-परम्पराओं में पाये जाने वाले दोषों- विस्तार, जटिलता एवं क्रमभङ्ग या अनुवृत्तिबाहुल्य- से अपने व्याकरण को यथासंभव मुक्त रखा है। यद्यपि वे उन सभी परम्पराओं के ऋण को स्वीकारते हैं।
'सिद्धहैमशब्दानुशासन' पर स्वयं हेमचन्द्र ने अनेक स्वोपज्ञवृत्तियाँ लिखी हैं। इन स्वोपज्ञवृत्तियों का नाम लघुवृत्ति, लघुवृत्तिचन्द्रिका, वृहद्वृत्ति, रहस्यवृत्ति तथा बृहन्न्यास है। इन वृत्तियों में उन्होंने अपने से पूर्ववर्ती वैयाकरण आचार्यों के मतों का उनके नामोलेख सहित विवेचन व आलोचन किया है। __ आचार्य हेमचन्द्र की इस अमर कृति पर अन्य टीकाकारों ने भी अनेक टीकाएँ लिखी हैं। इन टीकाओं में वृहद्वृत्ति दीपिका, वृहद्वृत्ति-अवचूर्णिका, हेमढुण्डिका तथा न्यायसारसमुद्धार प्रमुख हैं। हैम धातुपाठ
संस्कृत व्याकरण की लगभाग समस्त परम्पराओं में शब्दनुशासन को पांच अगों में विभाजित करके प्रस्तुत करने प्रणाली रही है। इसी कारण व्याकरणशास्त्र के लिए सभी व्याकरण-सम्प्रदायों में 'पञ्चाङ्ग व्याकरण' शब्द का प्रयोग किया जाता है। इन पांच अङ्गों में से प्रथम को सूत्रपाठ तथा शेष चार अङ्गों को खिलपाठ कहा जाता हैं। खिलपाठ में धातुपाठ, उणादिपाठ, गणपाठ तथा लिङ्गानुशासन सम्मिलित हैं। इन पांच अङ्गों में सूत्रपाठ सर्वाधिक प्रमुख है। यह व्याकरणशास्त्र का मूल भाग है। व्याकरण के अन्य चार अङ्गों को गौण माना जाता है। गौण होने के कारण ही उन्हें खिलपाठ नाम दिया गया है। व्याकरणशास्त्र के अध्ययन-अध्यापन में सूत्रपाठ की तुलना में इनकी उपेक्षा होती रही है। चिरकाल से सूत्रपाठ के परिशिष्ट के रूप में ही इनकी प्रयोग होता रहा है। पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक ने पठन-पाठन में इन महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों के अल्प व्यवहार व उपेक्षा पर खिन्नता व्यक्त की है।
जहाँ तक धातुपाठ का प्रश्न है, धातुओं का प्रवचन व्याकरणशास्त्र के किसी भी परम्परा का एक अनिवार्य अङ्ग होता है। संस्कृत शब्दों की व्याकृति करने वाली समस्त व्याकरणपद्धतियों में धातुओं के प्रवचन का एक व्यवस्थित व प्रणालीबद्ध प्रयास दृष्टिगत होता है। धातुओं के प्रवचन के मूल व आद्य रूप को संस्कृत व्याकरणशास्त्र के विभिन्न सम्प्रदायों में धातुपाठ के रूप में जाना जाता है।
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