Book Title: Dharm aur Vidya ka Tirth Vaishali Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 5
________________ ५३ पौराणिक और ऐतिहासिक परिचय इतना अधिक मिल जाता है कि इसमें वृद्धि करने जितनी नई सामग्री अभी नहीं है । भगवान् महावीर की जीवनी भी उस अभिनन्दन ग्रन्थ में संक्षेप से आई है । यहाँ मुझको ऐसी कुछ बातें कहनी हैं जो वैसे महात्मानोंकी जीवनीसे फलित होती हैं और जो हमें इस युग में तुरन्त कामकी भी हैं । महावीर के समय में वैशालीके और दूसरे भी गणराज्य थे जो तत्कालीन प्रजासत्ताक राज्य ही थे पर उन गणराज्योंकी संघदृष्टि अपने तक ही सीमित थी । इसी तरहसे उस समय के जैन, बौद्ध, श्राजीवक आदि अनेक धर्मसंघ भी थे जिनकी संघष्ट भी अपने-अपने तक ही सीमित थी । पुराने गणराज्योंकी संघदृष्टिका विकास भारत-व्यापी नये संघराज्यरूपमें हुत्रा है जो एक प्रकार से हिंसाका ही राजकीय विकास है। अब इसके साथ पुराने धर्मसंघ तभी मेल खा सकते हैं या विकास कर सकते हैं जब उन धर्मसंघों में भी मानवतावादी संघदृष्टिका निर्माण हो और तदनुसार सभी धर्मसंघ अपना-अपना विधान बदलकर एक लक्ष्यगामी हों । यह हो नहीं सकता कि भारतका राज्यतंत्र तो व्यापक रूपसे चले और पन्थोके धर्मसंघ पुराने ढर्रे पर चलें । आखिरको . राज्यसंघ और धर्मसंघ दोनोंका प्रवृत्ति क्षेत्र तो एक अखंड भारत ही है । ऐसी स्थिति में अगर संघराज्यको ठीक तरहसे विकास करना है और जनकल्याण में भाग लेना है तो धर्मसंघके पुरस्कर्ता को भी व्यापक दृष्टिसे सोचना होगा । अगर वे ऐसा न करें तो अपने-अपने धर्मसंघको प्रतिष्ठित व जीवित रख नहीं सकते या भारत के संघराज्यको भी जीवित रहने न देंगे । इसलिए हमें पुराने गणराज्यको संघदृष्टि तथा पन्थोंकी संघह ष्टिका इस युग में ऐसा सामञ्जस्य करना होगा कि धर्मसंघ भी विकासके साथ जीवित रह सके और भारतका संघराज्य भी स्थिर रह सके | भारतीय संघराज्यका विधान साम्प्रदायिक है इसका अर्थ यही है कि संघराज्य किसी एक धर्म में बद्ध नहीं है । इसमें लघुमती बहुमती सभी छोटेबड़े धर्म पन्थ समान भाव से अपना-अपना विकास कर सकते हैं। जब संघराज्यकी नीति इतनी उदार है तब हरेक धर्म परम्पराका कर्तव्य अपने श्राप सुनिश्चित हो जाता है कि प्रत्येक धर्म परम्परा समग्र जनहितकी दृष्टिसे संघराज्यको सब तरहसे दृढ़ बनानेका खयाल रक्खे और प्रयत्न करे। कोई भी लघु या बहुमती धर्म परम्परा ऐसा न सोचे और न ऐसा कार्य करे कि जिससे राज्यकी केन्द्रीय शक्ति या प्रान्तिक शक्तियाँ निर्बल हो । यह तभी सम्भव है जब कि प्रत्येक धर्म परम्परा के जवाबदेह समझदार त्यागी या गृहस्थ अनुयायी अपनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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