Book Title: Dharm aur Vidya ka Tirth Vaishali
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 3
________________ ब्राह्मणपुत्र तथा पुत्रियाँ बुद्ध व महावीरके पीछे पागल होकर निकल पड़े थे वैसे ही कई अध्यापक, वकील, जमींदार और अन्य समझदार स्त्री-पुरुष गांधीजीके प्रभावमें आए । जैसे उस पुराने युग में करुणा तथा मैत्रीका सार्वत्रिक प्रचार करनेके लिए संघ बने थे वैसे ही सत्याग्रहको सार्वत्रिक बनानेके गांधीजीके स्वप्नमें सीधा साथ देनेवालोंका एक बड़ा संघ बना जिसमें वैशाली-विदेह या बिहारके सपूतोंका साथ बहुत महत्त्व रखता है। इसीसे मैं नवयुगीन दृष्टिसे भी इस स्थानको धर्म तथा विद्याका तीर्थ समझता हूँ। और इसी भावनासे मैं सब कुछ सोचता हूँ। __ मैं काशीमें अध्ययन करते समय आजसे ४६ वर्ष पहले सहाध्यायिओं और जैन साधुओंके साथ पैदल चलते-चलते उस क्षत्रियकुण्डमें भी यात्राकी दृष्टिसे आया था जिसे अाजकल जैन लोग महावीरकी जन्मभूमि समझकर वहाँ यात्राके लिए पाते हैं और लक्खीसराय जंक्शनसे जाया जाता है। यह मेरी बिहारकी सर्व प्रथम धर्मयात्रा थी। इसके बाद अर्थात् करीब ४३ वर्षके पूर्व मैं मिथिला-विदेहमें अनेक बार पढ़ने गया और कई स्थानों में कई बार ठहरा भी। यह मेरी विदेहकी विद्यायात्रा थी। उस युग और इस युगके बीच बड़ा श्रन्तर हो गया है । अनेक साधन मौजूद रहनेपर भी उस समय जो बातें मुझे शात न थी वह थोड़े बहुत प्रमाणमें ज्ञात हुई हैं और जो भावना साम्प्रदायिक दायरेके कारण उस समय अस्तित्वमें न थी आज उसका अनुभव कर रहा हूँ। अब तो मैं स्पष्ट रूपसे समझ सका हूँ कि महावीरकी जन्मभूमि न तो वह लिच्छुआड़ या पर्वतीय क्षत्रियकुण्ड है और न नालन्दाके निकटका कुण्डलग्राम ही। आजके बसाढ़की खुदाईमेंसे इतने अधिक प्रमाण उपलब्ध हुए हैं और इन प्रमाणोंका जैन-बौद्ध परम्पराके प्राचीन शास्त्रोंके उल्लेखोंके साथ इतना अधिक मेल बैठता है तथा फाहियान ह्युएनसंग जैसे प्रत्यक्षदर्शी यात्रियों के वृत्तान्तोंके साथ अधिक संवाद होता है कि यह सब देखकर मुझको उस समय के अपने अज्ञानपर हँसी ही नहीं तरस भी श्राता है । और साथ ही साथ सत्यकी जानकारीसे असाधारण खुशी भी होती है । वह सत्य यह है कि बसाढ़के क्षेत्रमें जो वासुकुण्ड नामक स्थान है वही सचमुच क्षत्रियकुण्ड है। विभिन्न परंपराओंकी एकता भारत में अनेक धर्म परम्पराएँ रही हैं। ब्राह्मण परम्परा मुख्यतया वैदिक है जिसकी कई शाखाएँ हैं । श्रमण परम्पराकी भी जैन, बौद्ध, प्राजीवक, प्राचीन सांख्य-योग आदि कई शाखाएँ हैं। इन सब परम्पराओंके शास्त्रमें, गुरुवर्ग और संधौ, आचार-विचारमें उत्थान-पतन और विकास-हासमें इतनी अधिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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