Book Title: Dharm aur Vidya ka Tirth Vaishali
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 9
________________ से बदलना होगा जिसके सिवाय हम प्राच्यविद्या - विशारद यूरोपीय विद्वानोंके अनुगामी तक बनने में असमर्थ रहेंगे । प्राच्य भारतीय विद्याकी किसी भी शाखाका उच्च अध्ययन करने के लिए तथा उच्च पदवी प्राप्त करनेके लिए हम भारतीय यूरोपके जुदे-जुदे देशों में जाते हैं उसमें केवल नौकरीकी दृष्टिसे डीग्री पानेका ही मोह नहीं है पर इसके साथ उन देशोंकी उस उस संस्था का व्यापक विद्यामय वातावरण भी निमित्त है । वहाँ के श्रध्यापक, वहाँकी कार्यप्रणाली, वहाँके पुस्तकालय आदि ऐसे अङ्ग-प्रत्यङ्ग हैं जो हमें अपनी ओर खींचते हैं, अपने देशकी विद्यार्थीका अध्ययन करनेके लिए हमको हजारों कोस दूर कर्ज ले करके भी जाना पड़ता है और उस स्थिति में जब कि उन प्राच्य विद्याओंकी एक-एक शाखांके पारदर्शी अनेक विद्वान् भारतमें भी मौजूद हों। यह कोई अचरजकी बात नहीं है। वे विदेशी विद्वान् इस देशमें श्राकर सीख गए, श्रभी वे सीखने ाते हैं पर सिक्का उनका है। उनके सामने भारतीय पुराने पण्डित श्रौर नई प्रणालीके अध्यापक अकसर फीके पड़ जाते हैं। इसमें कृत्रिमता और मोहका भाग बाद करके जो सत्य है उसकी श्रोर हमें देखना है। इसको देखते हुए मुको कहने में कोई भी हिचकिचाहट नहीं कि हमारे उच्च विद्याके केन्द्रोंमें शिक्षण प्रणालीका आमूल परिवर्तन करना होगा । उच्च विद्या केन्द्र अनेक हो सकते हैं। प्रत्येक केन्द्रमें किसी एक विद्यापरंपराकी प्रधानता भी रह सकती है । फिर भी ऐसे केन्द्र अपने संशोधन कार्य में पूर्ण तभी बन सकते हैं जब अपने साथ संबंध रखने वाली विद्या परंपराम्रोंकी भी पुस्तक श्रादि सामग्री वहाँ संपूर्णतया सुलभ हो । पालि, प्राकृत, संस्कृत भाषा में लिखे हुए सब प्रकारके शास्त्रों का परस्पर इतना घनिष्ठ संबन्ध है कि कोई भी एक शाखाकी विद्याका अभ्यासी विद्या की दूसरी शाखाओं के आवश्यक वास्तविक परिशीलनको बिना किए सवा श्रभ्यासी बन ही नहीं सकता, जो परिशीलन अधूरी सामग्रीवाले केन्द्रों में संभव नहीं । इससे पुराना पंथवाद और जातिवाद जो इस युगमें हेय समझा जाता है वह अपने श्राप शिथिल हो जाता है । हम यह जानते हैं कि हमारे देशका उच्चवर्णाभिमानी विद्यार्थी भी यूरोपमें जाकर वहाँ के संसर्गसे वर्णाभिमान भूल जाता है । यह स्थिति अपने देश में स्वाभाविक तब बन सकती है जब कि एक ही केन्द्र में अनेक श्रध्यापक हों, श्रध्येता हों और सहज हो । ऐसा नहीं होने से साम्प्रदायिकताका मिथ्या श्रंश किसी न किसी रूपमें सबका परस्पर मिलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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