Book Title: Dhammapada 05
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 270
________________ आत्म-स्वीकार से तत्क्षण क्रांति किस बात की चाहना कर रहे हो? किस बात से तुलना कर रहे हो? और मैं तुमसे कहता हूं, तुम जैसे हो.भले हो। यह अस्तित्व दोहराता नहीं। यह अस्तित्व बड़ा सृजनात्मक है, बड़ा मौलिक है। इसीलिए तो राम फिर पैदा नहीं होते, कृष्ण फिर पैदा नहीं होते। एक दफा इस अस्तित्व में जो पैदा हुआ-हुआ। इसलिए तो हमारे पास एक बड़ा महत्वपूर्ण दृष्टिकोण है और वह यह है कि जो पूरा हो गया, वह लौटता नहीं। पूर्णपुरुष सदा के लिए खो जाता है। इसका क्या अर्थ हुआ? इसका अर्थ हुआ कि अब उसको लौटने की कोई जरूरत भी न रही। दोहरने का तो सवाल ही नहीं है। यह अस्तित्व हर लहर को नया-नया ही बनाता है। ये कोई फोर्ड के कारखाने से निकली कारें नहीं हैं कि लगा दो लाख कारें एक सिलसिले में एक जैसी। ये आदमी हैं। यहां प्रकृति में कुछ भी दोहरता नहीं। तुम जरा जाओ, एक पत्ता तोड़ लो और ठीक उस जैसा पत्ता तुम सारे पृथ्वी के जंगल छान डालो, न खोज पाओगे। ठीक उस जैसा पत्ता न पा सकोगे। जाओ रास्ते पर, एक कंकड़ उठा लो। ठीक इस जैसा कंकड़, तुम पृथ्वी और चांद-तारे सब खोज डालो, तुम दुबारा न पाओगे। यह अस्तित्व दोहराता ही नहीं। यह अस्तित्व मौलिक है। पुनरुक्ति नहीं करता। इसलिए तो इतना सुंदर है। - तुम पुनरुक्ति नहीं हो किसी की। लेकिन तुम तुलना कर रहे हो; तुम कहते हो, बुद्ध क्यों न बनाया! अब तुम मुश्किल में पड़े। अब जो हिस्से तुम्हें बुद्ध जैसे नहीं मालूम पड़ते, उनकी तुम निंदा करते हो; और जो हिस्से बुद्ध जैसे मालूम पड़ते हैं, उनके द्वारा निंदा करते हो। अब तुमने अपने को बांटा। तुम एक न रहे। और तुम एक ही हो। तुम अपने को बांट न सकोगे। जो खून तुम्हारे पैर में बहता है वही तुम्हारे मस्तिष्क में बहता है; तुम कहीं बीच में धारा को काट न सकोगे। अखंड हो तुम। जुड़े हो, एक हो। इकाई हो। • निंदा छोड़ो! निंदा द्वैत में ले जाती है; स्वीकार अद्वैत में। और जब तुम अपने भीतर ही अद्वैत को न पा सकोगे तो और कहां पाओगे? इस छोटी सी तुम्हारी जीवन की धारा में तो अद्वैत को साध लो! फिर वही दृष्टिकोण फैला लेना सारे अस्तित्व पर। जो अपने में पा लेता है अद्वैत को, वह अचानक सब में अद्वैत को देखना शुरू कर देता है। मैं समझता हूं, तुम्हारा प्रश्न उठता है तुम्हारी गहरी आत्मनिंदा से। और तुम्हें तथाकथित धर्मगुरुओं ने यही सिखाया है—पापी हो, निंदित हो, नरक जाने योग्य हो! सुन-सुनकर उनकी बातें तुम्हें भी जंच गयी हैं। बार-बार सुनने से तुम्हारे मन में भी बैठ गयी हैं। बार-बार पुनरुक्ति से झूठ भी सच हो गए हैं। __मैं तुमसे कहता हूं, न तुम पापी हो, न तुम नर्क में जाने योग्य हो। नर्क में जाने योग्य होते तो नर्क में होते। पापी होते तो यहां कैसे होते! पापी तुम नहीं हो। तुम तुम 255

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