Book Title: Devshilp Author(s): Devnandi Maharaj Publisher: ZZZ Unknown View full book textPage 6
________________ इस कृतिदेव शिल्प की रचना करते समय गुरुदेव ने सम्प्रदाय एवं पंथ भेद से ऊपर उठकर सर्वोपयोगिता की भावना रखी है। दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराओं को ध्यान में रखकर जिन प्रतिमा, शासन देव देवी प्रतिमा, क्षेत्रपाल, विद्या देवियों आदि का स्वरुप दोनों दृष्टियों से प्रस्तुत किया है। जैनेतर पाठकों का भी आचार्यवर ने स्मरण रखा है तथा अनेकों स्थानों पर जैसे दृष्टि प्रकरण, व्यक्त अव्यक्त प्रासाद, सम्मुख देव, गृह मन्दिर आदि में जैनेतर परम्पराओं के अनुरुप दिशा बोध दिया है। संप्रदायवाद की संकीर्णता से ऊपर उठकर आचार्यवर ने विराट सर्वतोभद्र दृष्टिकोण अपनाया है। परम पूज्य गुरुदेव प्रज्ञाश्रमण आचार्य श्री १०८ देवनन्दिजी महाराज पर जिनवाणी सरस्वती की अद्भुत कृपा है। पूर्व में ध्यान जागरण कृति के माध्यम रो उन्होंने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया था। वास्तु शास्त्र पर अभूतपूर्व कृति 'वास्तु चिन्तामणि ने उन्हें जन जन का चहेता बना दिया। करुणा मूर्ति आचार्य वर की कलम से पुनः देव शिल्प का सृजन हुआ। संभवतः पिछले एक सहस्र वर्षों में भी इस तरह की सर्वांगीण कृति प्रथम बार किसी दि. जैनाचार्य की बालन से निवृत हुई है। यह रकम भी वास्तु चिन्तामणि की भांति सर्वजन प्रिय होगी तथा दिगम्बर, श्वेताम्बर, जैन जैनेतर सभी पाठक इससे लाभ उठायेंगे। (ग्रन्थ परिचय) देव शिल्प ग्रन्थ की विषय वस्तु मन्दिर है । मन्दिर भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का अभिन्न अंग है। सारी भारतीय संस्कृति मूलतः आस्तिकता एवं धर्म पर आधारित है। श्रमण एवं वैदिक दोनों ही संस्कृतियों में साकार उपासना हेतु प्रतिमा एवं मन्दिर की उपयोगिता प्रतिपादित की गई है। निराकार उपासना हेतु भी प्रतिमा का निषेध होने के उपरांत भी आराधना स्थल बनाया गये जाते है। प्राचीन भारतीय शिल्पकला का गौरव सारे विश्व में विख्यात है। जैन एवं हिन्दू दोनों ही धर्मों में इस विद्या का समान महत्व है। काल के थपेड़ों से इसका ज्ञान अत्यल्प शेष रहा है। परम पूज्य गुरुदेव आचार्य श्री १०८ प्रज्ञाश्रमण देवनन्दिजी महाराज सतत् ज्ञानोपयोगी है। वास्तु शास्त्र के अभूतपूर्व ग्रन्थ वास्तु के उपरान्त आपने मंदिरों की शिल्प विद्या पर अनुसंधान एवं अध्ययन किया तथा उनके इस ज्ञानोपयोग का परिणाम देव शिल्प के रूप में आपके समक्ष प्रस्तुत है। ग्रन्थ देव शिल्प को ग्यारह प्रकरणों में विभक्त किया गया है। ग्रंथ का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है : १. भूमि प्रकरण मंगलाचरण एवं जिनालय स्तुति के उपरांत सर्वप्रथम मन्दिर की आवश्यकता का प्रतिपादन किया गया है। जिनेन्द्र प्रभु की प्रतिमा कर्म क्षय का कारण है तथा यही शाश्वत सुख की प्राप्ति का आधार है। जन सामान्य के लिए प्रभु आराधना का स्थल मंदिर ही है। अतएव इसका निर्माण असीम पुण्य का अर्जन कर चिरकाल तक सुखी करने का हेतु है।Page Navigation
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