Book Title: Devshilp
Author(s): Devnandi Maharaj
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 9
________________ किस देव के सामने कौन से देव का मन्दिर बना सकते हैं, इस हेतु शिल्प शास्त्रों में स्पष्ट निर्देश दिये गए हैं। नाभिवेध का परिहार करके ही सम्मुख मन्दिर बनायें। प्रसंगवश देवों के चैत्यालयों की संक्षिप्त जानकारी भी प्राचीन ग्रन्थों के आधार पर उद्धृत की गई है। ४. निर्माण प्रकरण यह प्रकरण ग्रन्थ का महत्वपूर्ण भाग है। मन्दिर निर्माण का निर्णय व्यक्तिगत अथवा सामूहिक होता है। मन्दिर बनाने का निर्णय करने के पश्चात सर्वप्रथम अपने गुरुदेव से विनयपूर्वक आशीर्वाद लेवें तथा उनके निर्देशन में ही मुहुर्त एवं भूमि का चयन करें। पश्चात् भूमि के देवताओं से निर्विघ्न कार्य सम्पादन के लिये विधिवत् अनुरोध करें। शुभ मुहूर्त में भूमिपूजन विधान करें। मन्दिर निर्माण करने के लिए निकृष्ट सामग्री कदापि न लायें। मन्दिर बनाने में लोहे के प्रयोग का निषेध किया जाता है किन्तु वर्तमान निर्माण शैली में लोहा निर्माण का आवश्यक अंग है अतएव समन्वयपूर्वक कार्य करें। किस लकड़ी का प्रयोग करना चाहिये, इसका स्पष्ट निर्देश शिल्पशास्त्रों के अनुरुप निर्दिष्ट किया गया है। मन्दिर निर्माण प्रारंभ कूर्म शिला स्थापन से किया जाता है। कूर्म के चिन्ह वाली शिला की स्थापना गर्भगृह के मध्य नींव में स्थापित की जाती है। इसे स्वर्ण या रजत से बनायें। आधार के लिए खर शिला की स्थापना करते हैं। खर शिला के ऊपर मोटा भिट्ट स्थापित किया जाता । भिट्ट स्थापना के उपरांत एक चबूतरानुमा रचना बनाई जाती है जिसे जगती कहते हैं। इसी जगती पर निर्दिष्ट स्थान पर पीठ के ऊपर मन्दिर का निर्माण किया जाता है। मन्दिर की दीवार का बाह्य भाग मंडोवर कहलाता है। भीतरी भाग दीवार या भित्ति कहलाता है। मंडोक अत्यंत कलामा बनाया जाता है। इसी से नन्द का बाह्य वैभव दृष्टिगत होता है। प्रस्तुत ग्रन्थ में विभिन्न शिल्प शास्त्रों के मतानुसार मण्डोवर के थरों का मान वतलाया गया है। मंदिर के मध्य में स्तंभों की रचना की जाती है जो कि मण्डप की छत का भार वहन करते हैं। स्तंभों में मंडोवर की ही भांति विभिन्न थरें होती हैं। स्तम्भ अनेकों एवं कलाकृतियों से युक्त बनाये जाते हैं। मन्दिर के सभी अंगों का इस ग्रन्थ में विस्तृत विवेचन किया गया है। द्वार में देहरी का निर्माण करना अपरिहार्य है। वर्तमान में देहरी के बिना ही द्वार बनाये जाने लगे हैं, यह हानिकारक है। बिना देहरी की चौखट न बनायें। द्वार की शाखाओं का भी अपना महत्व है। जिन मन्दिरों में सात या नौ शाखा वाला द्वार बनाना निर्दिष्ट किया गया है। देहरी से सवाया मथाला अथवा उत्तरंग बनाना चाहिये। उत्तरंग में तीर्थंकर भगवान की प्रतिमा अथवा गणेश प्रतिमा बनाये। द्वार सही प्रमाण में ही बनाना चाहिये । द्वार की ही भांति खिड़की बनाने के भी नियम है। इन्हें द्वार के समसूत्र में बनायें। खिड़कियां सम संख्या में ही बनाना चाहिये। जाली एवं गवाक्ष कलात्मक रीति से बनाना चाहिये। ग्रन्थ में गवाक्ष के भेद सचित्र बताए गए हैं। क्लाणक से मन्दिर का मण्डपक्रम प्रारंभ होता है। वलाणक अथवा मुख मण्डप के उपरांत नृत्य मंडप तथा उसके उपरांत चौकी मंडप बनाया जाता है। चौकी मण्डप स्तंभों की संख्या के अनुरूप २७ भेदों के बनाए गए हैं। चौकी मण्डप के उपरांत गूढ़ मण्डप का निर्माण किया जाता है। गूढ़ मण्डप के उपरांत अन्तराल तथा सबसे अन्त में गर्भगृह बनाया जाता है। सांधार मन्दिरों में गर्भगृह के चारों ओर परिक्रमा बनाई जाती है। मण्डप का आच्छादन गूमट से किया जाता है। गूमट का बाह्य रुप संवरणा कहलाता है तथा भीतरी भाग वितान कहलाता है। इनके अनेकों भेद शिल्पशास्त्रों में बताये गये हैं।

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