Book Title: Devshilp
Author(s): Devnandi Maharaj
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 11
________________ प्रतिमा की दृष्टि द्वार के किस भाग में आना चाहिये, इस विषय में आचार्यों के मतांतर हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में विभिन्न मतों का विवरण किया गया है। फिर भी जिन प्रतिमा के लिए ६४ में से ५५ वें भाग में दृष्टि रखना उचित प्रतीत होता है। जिन प्रतिमा का बारीकी से प्रमाण पद्मासन एवं खड्गासन, दोनों के लिए दिया गया है। पूज्य आचार्य परमेष्ठी एवं विद्वान प्रतिष्ठाचार्य के परामर्श से ही प्रतिमा का निर्णय करना चाहिये। कभी भी दूषित अंगवाली प्रतिमा की स्थापना नहीं करना चाहिये अन्यथा शिल्पकार, मूर्ति स्थापनकर्ता तथा प्रतिष्ठाकारक आचार्य एवं समाज सभी का अनिष्ट होता है। अनेकों स्थानों पर इस दोष का सीधा प्रभाव दृष्टिगत होता है। अनेकों मन्दिर उजाड़ दिखते हैं तथा समाज पतनोन्मुख हो जाता है। तीर्थंकर प्रतिमा सिंहासन पर अष्ट प्रातिहार्य सहित पूरे परिकर वाली बनाना चाहिए। बिना परिकर वाली प्रतिमा को सिद्ध प्रतिमा माना जाता है। प्रतिमा के समीप अष्ट प्रातिहार्य एवं अष्ठमंगल द्रव्य अवश्य ही रखना चाहिये। यन्त्र का मान भी प्रतिमा की भांति किया जाता है। मातृका यंत्र एक प्रमुख यंत्र है जिसका प्रयोग प्रतिमा की स्थापना के समय अचल यंत्र के रूप में किया जाता है। ग्रन्थ में यंत्रों की संक्षिप्त जानकारी दी गई है। विस्तृत जानकारी मन्त्रशास्त्र के ग्रन्थों से प्राप्त करना चाहिये । ६. देव-देवी प्रकरण इस प्रकरण में तीर्थंकर प्रभु के समवशरण में स्थित शासन देव देवियों के स्वरूप का सचित्र संक्षिप्त विवरण दिया गया है। विभिन्न ग्रन्थों के पाठांतर मिलने पर भी देवों की विक्रिया ऋद्धि के कारण यह संभव है, ऐसा निर्देश भी दिया गया है। क्षेत्रपाल, मणिभद्र, घण्टाकर्ण, सर्वान्ह यक्ष आदि देव जैन धर्म एवं धर्मावलम्बियों के सहायक देव हैं। इनका सम्मान साकार रुप में प्रतिमा बनाकर किया जाता है। दिक्पालों का स्वरुप भी इसी प्रकरण में संक्षेप में दिया गया है। यक्ष की तीर्थंकर के दाहिने ओर तथा यक्षिणी को बायें ओर स्थापित किया जाता है। इसको विपरीत करने पर भयावह परिणाम होते हैं। शासन देव एवं देवियों की प्रतिमाएं प्रत्येक तीर्थकर प्रतिमा में स्थापित करना चाहिये । कालान्तर में पद्मावती देवी एवं ज्वालामालिनी तथा चक्रेश्वरी देवी की ही प्रमुखता से आराधना होने लगी। कहीं कहीं पर अज्ञानता वश इन्हें तीर्थंकर प्रभु से समकक्ष लोग मानने लगे। इसका कतिपय लोगों ने निराकरण करने का प्रयास किया तथा जब वे इसका समाधान न कर पाये तो इन्हें ही हटाने लगे। इससे पंथवाद का जड़ पनपी । मेरा निवेदन है कि सर्वत्र विवेक की आवश्यकता है। तीर्थंकर को तथा यक्ष यक्षिणी को समान मानना वास्तव में अनुचित है किन्तु यक्ष यक्षिणी को मिथ्या दृष्टि मानकर अथवा मिथ्या आयतन मानकर खंडित करना उससे भी अधिक अनुचित है। जैनेतर देवों की पंचायतन शैली एवं उनका उपयोगी वर्णन संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है। ७. विभिन्न निर्देश प्रकरण इस प्रकरण में अनेकानेक उपयोगी विषयों का खुलासा किया गया है। घर में पूजा करने के लिए गृह मन्दिर बनाया जाता है। इसमें मात्र १३, ५, ७, ९, या ११ अंगुल की प्रतिमा की रखी जानी चाहिये। इसका निर्माण शुभ आय में तथा काष्ठ से करना चाहिये। इसमें ध्वजादण्ड नहीं लगायें। गृह चैत्यालय की पवित्रता का ध्यान रखना अनिवार्य है अन्यथा विपरीत परिणाम होंगे। पूजा करने की दिशा, आसन, मुख, प्रदक्षिणा विधि आदि के लिए भी उपयोगी निर्देश दिए गए हैं।

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