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मुनियों एवं त्यागियों के लिये वसांतका का निर्माण किया जाता है। इसका निर्माण मन्दिर परिसर के दक्षिण या पश्चिम या उत्तर में रखें। अनेकों उपयोगी एवं व्यवहारिक निर्देश यहां दृष्टव्य हैं। साधु समाधि स्थल निषोधिका के लिए भी उपयोगी निर्देश दिये गये हैं। निषीधिका भी पूज्य है, इसके प्रमाण भी पठनीय है।
वर्तमान काल में सर्वत्र पंचकल्याणक प्रतिष्ठाएं होने लगी हैं। इसके लिए भी उपयोगी ग्रन्थ में प्रस्तुत किए गए हैं। प्रतिष्ठा मंडप यज्ञ कुण्ड एवं पांडुक शिला के रेखा चित्र समुचित निर्देश देते हैं।
यद्यपि स्तूपों का आजकल प्रचलन नहीं है फिर भी प्राचीनकाल में जैनों में स्तूप बनाने का प्रचलन था। स्तूपों के अवशेष आज भी मिलते हैं।
खण्डित प्रतिमा के लिए पूज्यता आदि के निर्देश दिए गए हैं। यदि १०० से अधिक वर्षों से किसी प्रतिमा की पूजा की जा रही हो तो वह सदोष रहने पर भी त्याज्य नहीं है। स्थापत्य शास्त्र के संरक्षण की दृष्टि से खंडित प्रतिमा के विसर्जन के स्थान पर उसे संग्रहालय में रखने का भी सुझाव समयोचित है।
__ मन्दिर निर्माण से अधिक महत्व मन्दिर के जीणोद्धार का है। आजकल जीर्णोद्धार के नाम पर चलने वाली यद्वा तद्वा बातों का निराकरण आचार्य श्री ने इस प्रकरण में किया है। जीर्णोद्धार कार्य में नव निर्माण से आठ गुना पुण्य प्राप्त होता है। जीर्णोद्धार के लिये विधि विधान एवं संकल्प पूर्वक ही मूर्ति को स्थानांतरित करें अन्यथा भयावह परिणाम होंगे।
6. ज्योतिष प्रकरण ज्योतिष प्रकरण में मन्दिर भूमि पर निर्माण प्रारंभ के लिए मुहूर्त चयन हेतु विशेष जानकारी दी गई है। सूर्य बलशाली होने पर ही कार्यारम्भ करें। साथ ही यह भी आवश्यक है कि किस तीर्थंकर की प्रतिमा मूलनायक के रुप में स्थापित की जानी है, इसका निर्णय राशि मिलान करके ही करें। वेध प्रकरण में वेधों के विभिन्न प्रकारों पर उपयोगी निर्देश दिए गए हैं। इसी प्रकार अपशकुन एवं अशुभ लक्षणों का भी विचार करना चाहिये । मन्दिर निर्माण के दोषों को भी इसी प्रकरण में स्पष्ट किया गया है।
९.प्रासाद भेदपकरण . इस प्रकरण में प्रासाद की विभिन्न जातियों को संक्षेप में दर्शाया गया है। केसरी आदि २५, वैराज्य आदि २५ प्रासादों का विवरण संक्षेप में दो भागों :-तल का विभाग एवं शिखर की सज्जा में सचित्र दिया गया है। मेरु आदि २० प्रासादों एवं तिलकसागर आदि २५ प्रासादों की अल्प जानकारी दी गई है।
१०. जिलेष्ट्र प्रासाद प्रकरण ___ इस प्रकरण में प्रत्येक तीर्थकर के लिए पृथक-पृथक रुप से प्रासादों का नाम, तल विभाग, शिखर सज्जा एवं उनके श्रृंगों की संख्या का सचित्र विवरण दिया गया है। कुल ९६७० प्रकार के शिखरों में से कुछ की ही जानकारी मिलती है।