Book Title: Devgadh ki Jain Kala
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 8
________________ विषय-वस्तु के अनुसार प्रबन्ध नौ अध्यायों एवं पाँच परिशिष्टों में विभक्त किया गया है। विषय-सूची ऐसी बनायी गयी है जिससे समूची सामग्री का बोध हो जाए। देवगढ़ की जैन कला का यह अध्ययन भारतीय इतिहास, पुरातत्त्व, स्थापत्य, शिल्पकला एवं संस्कृति के अध्ययन के क्षेत्र में एक सर्वथा अछूता प्रयत्न तो है ही, इससे कला, स्थापत्य और संस्कृति विषयक अनेक नवीन मान्यताओं पर नया प्रकाश भी पड़ता है। जैनधर्म में देवपूजा का मूलतः अभाव, मूर्तिपूजा की पूर्णरूपेण प्रतीकात्मकता, मन्दिर की कल्पना में मेरु का आदर्श, भट्टारक संस्था का उद्भव और विकास, भट्टारकों की भौतिकवादोन्मुख अध्यात्मवादी रीति-नीति, पद्मावती की अशास्त्रीय मूर्तियों की पहचान आदि कतिपय ऐसे तथ्य हैं जिन पर इस प्रबन्ध में कदाचित् सर्वप्रथम मौलिक मान्यताएँ प्रस्तुत की गयी हैं। अपने इस अध्ययन में मैंने पूर्व विद्वानों द्वारा प्रस्तुत विवरणों और मान्यताओं को तथ्यों के आधार पर जाँचा-परखा है और कहीं-कहीं उन्हें त्रुटिपूर्ण भी पाया है। पुरातात्त्विक, साहित्यिक तथा अनुश्रुतियों के आधार पर मैंने कतिपय नवीन स्थापनाएँ भी की हैं। देवगढ़ वास्तव में भारत का एक प्रमुख सांस्कृतिक केन्द्र है । यह सिद्धक्षेत्र न होकर भी सम्मेद शिखर, ऊर्जयन्त ( गिरनार ) और शत्रुंजय ( पालीताना) जैसे उत्कृष्ट मन्दिर - नगरों की कोटि में आता है । यहाँ लगभग सोलह सौ वर्ष से कला और संस्कृति का विकास होता रहा है । प्रस्तुत प्रबन्ध इस महत्त्वपूर्ण कला-केन्द्र के सर्वांगीण अध्ययन का एक विनम्र प्रयत्न है । प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध के निर्देशन के लिए सागर विश्वविद्यालय में प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति तथा पुरातत्त्व विभाग के अध्यक्ष और टैगोर प्रोफेसर श्रद्धेय पं. कृष्णदत्त वाजपेयी का हृदय से आभारी हूँ, जिनके सुयोग्य मार्गदर्शन, सतत प्रेरणा और सुलभ - सहायता के अभाव में इस शोधकार्य का पूर्ण होना सम्भव नहीं था । उन्होंने और उनके परिवार ने भी जिस आत्मीयता के साथ मेरे शोधकार्य में अमूल्य सहयोग प्रदान किया है, उसके लिए मैं उनका अनुग्रह और आभार मानता हूँ। यह मेरा परम सौभाग्य है कि उन जैसे ख्यातिप्राप्त पुराविद् और इतिहासज्ञ के निर्देशन में मुझे शोधकार्य का अवसर प्राप्त हुआ । सम्मान्य भाई पं. गोपीलाल अमर एवं डॉ. गोकुलचन्द्र जैन से मुझे निरन्तर बहुमूल्य सहयोग और सुझाव प्राप्त हुए हैं, जिसके लिए मैं उनका हृदय से कृतज्ञ हूँ । देवगढ़-जैसे समृद्ध और महत्त्वपूर्ण कला - केन्द्र का सर्वांगीण अध्ययन सामान्य रूप से किसी एक व्यक्ति के वश का कार्य नहीं था, वह तो अनेक विद्वानों, महानुभावों और तीर्थसेवियों के सहयोग से ही सम्भव हुआ है । इस सन्दर्भ में सर्वश्री स्व. परमानन्द बरया, स्व. डॉ. हीरालाल जैन, डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन, स्व. डॉ. Jain Education International छह For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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