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Jaina Literature and Philosophy
Begins fol. 10 ॥ ॐ ॥
श्रीगुरुभ्यो नमः || दूहा ॥
विहरमाण जिण वंदीयइ ॥ धुरि सीमंधर स्वामि ॥ सपरिवार सहुन नमुं || अतिसय जे अभिराम । १ । श्री आदीस्वर आदि दे । चउवीसइ जिणराय । गणधर श्रमण सती सह । श्रुतदेवी बहुभाय ॥ २ ॥ etc. भविण सुज्यो भाव धरि ॥ हरिवाहनगुणवृंद ॥ समगति सीलसु नारिनर || पामीजइ आणंद ॥ ११ ॥ etc.
Ends – fol. 15a
साधु तण गुण गाई यह संपति लहियइ सार करमचंद गुर सुषकरू नइ दामोदर प्यार बहुप्पार हरष अपार दामोदर तणईं आग्रह करी संवत सतर तिजेतरह ( १७०३ १ ) ए चरित्र रचियो चित धरी 'ऊजेणि 'पुरि आनंद सेती संघ सहुमनिभाई यह
सुष संपदा मुनझांझ पांमई साधु तणा गुण गाई यह ४
[882
इति श्रीहरिवाहनचउपई समकतिसीलविषये ऋषि श्री श्री झांझणजीकृतिरियं पूज्यश्री श्री जी तत्प्रसादात् पूज्य श्री श्री श्री जी तत्प्रसादात् पूज्य श्री श्री जी तत्प्रसादात् तत् सिष्य ऋषि लिषतं आत्मार्थ संवत् १७६५ वरषे कार्तिकवदि १४ दिने कतकवार शनिवारे लिषतं ' थनेसर 'मध्ये श्रीरस्तु लेषकपाठकयो भद्रं भवतु कल्याणमस्तु सर्वदा श्री श्री श्री ॥ श्री ॥ छ ॥ श्री Reference - It seems that this very MS. is noted in Jaina Gurjara extracts are given nor
Kavio (Vol. II, p. 466 ) . Neither additional MSS. mentioned.
हरिश्चन्द्रकान
No. 882
Slze - 10 In by 4 in.
Extent – 17 folios; 13 line to a page; 35 letters to a line.
Description
Hariścandrakathānaka
1334
1884-87
1 - Country paper somewhat thick, tough and white; Jaina Devanagari characters with BATIS; big, quite legible and tolerably good hand-writing; borders ruled in two pairs of