Book Title: Dashashrutskandh Sutra
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 14
________________ 404 जिनवाणी जैनागम साहित्य विशेषाङ्क है कि असमाधि यहाँ नञ् तत्पुरुष समासान्त पद है। यदि नञ् समास न किया जाये तो यही बीस समाधि स्थान बन जाते हैं अर्थात् अकार को हटा देने से यही बीस भाव समाधि के स्थान हैं। इस प्रकार इसी अध्ययन से जिज्ञासु समाधि और असमाधि दोनों के स्वरूप को भलीभांति जान सकते हैं। अध्ययनों के पौर्वापर्य और परस्पर सामंजस्य की दृष्टि से विचार करने पर ज्ञात होता है कि असमाधिस्थानों के आसेवन से शबलदोष की प्राप्ति होती है । अत: पहली दशा से संबंध रखते हुए सूत्रकार दूसरी दशा में शबलदोष का वर्णन करते हैं। " जिस प्रकार दुष्कर्मों से चारित्र शबलदोष युक्त होता है, ठीक उसी तरह रत्नत्रय के आराधक आचार्य या गुरु की आशातना करने से भी चारित्र शबल दोषयुक्त होता है। अतः पहली और दूसरी दशा से संबंध रखते हुए तीसरी दशा में तैंतीस आशातनाओं का वर्णन है। आशातनाओं का परिहार करने से समाधि मार्ग निष्कण्टक हो जाता है। प्रारम्भिक तीनों दशाओं में असमाधि स्थानों, शबलदोषों और आशातनाओं का प्रतिपादन किया गया है। उनका परित्याग करने से श्रमण गणि पद के योग्य हो जाता है। अतः उक्त तीनों दशाओं के क्रम में चतुर्थ दशा में गणिसम्पदा का वर्णन है। गणि सम्पदा से परिपूर्ण गणि समाधिसम्पन्न हो जाता है, किन्तु जब तक उसको चित्त समाधि का भलीभांति ज्ञान नहीं होता, तब तक वह उचित रीति से समाधि में प्रविष्ट नहीं हो सकता, अतः पूर्वोक्त दशाओं के अनुक्रम में ही पाँचवीं दशा में 'चिंत्तसमाधि' का वर्णन है। संसारी जीवों के लिए समाधि प्राप्त करना आवश्यक है। सभी मनुष्य साधुवृत्ति ग्रहण नहीं कर सकते, अतः श्रावकवृत्ति से भी समाधि प्राप्त करना अपेक्षित है। इसी लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए श्रावकों की ग्यारह प्रतिमाओं-उ -उपासक प्रतिमाओं का छठी दशा में प्रतिपादन है। यही अणुव्रती सर्वविरति रूप चारित्र की ओर प्रवृत्त होना चाहे तो उसे श्रमण व्रत धारण करना पड़ता है। अत: सातवीं दशा में भिक्षु प्रतिभा का वर्णन है। प्रतिमा समाप्त करने के अनन्तर मुनि को वर्षा ऋतु में निवास के योग्य क्षेत्र की गवेषणा कर अर्थात् उचित स्थान प्राप्त कर वर्षा ऋतु वहीं व्यतीत करनी पड़ती है। इस आठवीं दशा में वर्षावास के नियमों का प्रतिपादन है। प्रत्येक श्रमण को पर्युषणा का आराधन उचित रीति से करना चाहिए, जो ऐसा नहीं करता वह मोहनीय कर्मों का उपार्जन करता है | अतः नवीं दशा में जिन-जिन कारणों से मोहनीय कर्मबन्ध होता है उनका वर्णन किया गया है | श्रमण को उन कारणों का स्वरूप जानकर उनसे सदा पृथक् रहने का प्रयत्न करना चाहिए। यह सबसे प्रधान कर्म है। अतः प्रत्येक को इससे बचने का प्रयत्न करना चाहिए। इसके परिहार हेतु मोहदशा की रचना की गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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