Book Title: Dashashrutskandh Sutra Author(s): Ashok Kumar Singh Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf View full book textPage 1
________________ दुशाश्रुतस्कन्धसूत्र डॉ. अशोक कुमार सिंह छेदसूत्रों का श्रमणाचार के उत्सर्ग एवं अपवाद नियमों के प्रतिपादन के कारण जैन आगमों में विशेष स्थान है। स्थानकवासी एवं तेरापंथ सम्प्रदायों में ४ छेदसूत्र मान्य हैं... १. टशाश्रुतस्कसूत्र २. बृहत्कल्पसूत्र ३. व्यवहारसूत्र ४. निशीथ सूत्र। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में महानिशीथ और जानकल्प को मिलाकर ६ छेदसूत्र स्वीकार किए गए हैं दशाश्रुतस्कन्ध का दूसरा नाम आचारदशा भी है। इसमें मुख्यत: श्रमणों एवं गौणत - श्रमणोपासकों के आधारसंबंधी विधान है। २० असमाधि स्थान, २१ शबल दोष, ३३ आशातनाएँ, आचार्य की आठ सम्पदाएँ, चित्त समाधि के १० बोल. श्रावक की ११ प्रतिमाएँ, भिक्षु की १२ प्रतिमाएँ, ३० महामोहनीय कर्मबन्ध के कारणों की इसमें चर्चा है। डॉ अशोक कुमार सिंह के इस आलेख में टशाश्रुतस्कन्ध पर उपयोगी सामग्री उपलब्ध है। -सम्पादक जैन परम्परा (श्वेताम्बर जैनों के विभिन्न सम्प्रदाय) में छेदसूत्रों की संख्या के विषय में मतभेद है। छ: छेदसूत्र ग्रन्थों में से महानिशीथ और जीतकल्प इन दोनों को स्थानकवासी और तेरापन्थी नहीं मानते, वे केवल चार को स्वीकार करते हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय छ: छेदसूत्रों को मानता है। छेद संज्ञा कब से प्रचलित हुई और छेद में प्रारम्भ में कौन-कौन से आगम ग्रन्थ सम्मिलित थे, यह भी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता! परन्तु अभी तक जो साहित्यिक साक्ष्य उपलब्ध हुए हैं उनके अनुसार आवश्यकनियुक्ति में सर्वप्रथम छेदसूत्र का वर्ग पृथक् हो गया था। छेद शब्द की व्युत्पत्ति ___ 'छेद' शब्द छिद् (काटने या भेदने अर्थ में) धातु से भाव अर्थ में घञ् प्रत्यय होकर निष्पन्न हुआ है। छेद का शाब्दिक अर्थ होता है-काटना, गिराना, तोड़ डालना, खण्ड-खण्ड करना, निराकरण करना, हटाना, छिन्न-भिन्न करना, साफ करना, नाश, विराम, अवसान, समाप्ति, लोप होना, टुकड़ा, ग्रास, कटौती, खण्ड अनुभाग आदि। जैन परम्परा में छेद शब्द सामान्यत: जैन आचार्यो द्वारा प्रायश्चित्त के एक भेद के रूप में ही ग्रहण किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने छेद का अभिप्राय स्पष्ट करते हुए कहा है- "सोना, बैठना, चलना आदि क्रियाओं में जो सदा साधु की प्रयत्न के बिना प्रवृत्ति होती है— उन्हें असावधानी से सम्पन्न किया जाता है- वह प्रवृत्ति हिंसा रूप मानी गई है। शुद्धोपयोग रूप मुनिधर्म के छेद (विनाश) का कारण होने से उसे छेद(अशुद्ध उपयोग रूप) कहा गया है।'' पूज्यपाद ने 'सर्वार्थसिद्धि में इसे परिभाषित करते हुए कहा है 'कान, नाक आदि शरीर के अवयवों के काटने का नाम छेद है। यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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