Book Title: Dashashrutskandh Sutra
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 15
________________ दशाश्रुतस्कन्धसूत्र 405 नवम दशा में महामोहनीय स्थानों का वर्णन किया गया है। कभी-कभी साधु उनके वशवर्ती होकर तप करते हुए निदान कर बैठता है। मोह के प्रभाव से कामभोगों की इच्छा उसके चित्त में जाग उठती है और उस इच्छा की पूर्ति की आशा से वह निदान कर्म कर लेता है। परिणामतः उसकी वह इच्छा "आयति' अर्थात् आगामी काल तक बनी रहती है, जिससे वह फिर जन्म-मरण के बंधन में फँसा रहता है। अतः इस दशा में निदान कर्म काही वर्णन करते हैं। यही नवम दशा से इसका संबंध है । दशवीं दशा का नाम आयति दशा है। आयति शब्द का अर्थ जन्म या जाति जानना चाहिए। जो व्यक्ति निदान के कर्म से बंधेगा उसको फल भोगने के लिए अवश्य ही नया जन्म ग्रहण करना पड़ेगा। व्याख्या साहित्य दशाश्रुतस्कन्ध पर व्याख्या साहित्य के रूप में भद्रबाहु कृत नियुक्ति, अज्ञातकर्तृक चूर्णि ब्रह्मर्षि या ब्रह्ममुनि कृत जिनहितावृत्ति, एक अज्ञातकर्तृक टीका, पृथ्वीचन्द्र कृत टिप्पणक एवं एक अज्ञातकर्तृक पर्याय उपलब्ध है। इसमें से नियुक्ति और चूर्णि का प्रकाशन हुआ हैं। परन्तु शेष व्याख्या साहित्य के प्रकाशित होने की सूचना उपलब्ध नहीं है । विभिन्न स्रोतों के आधार पर इनका ग्रन्थ परिमाण नियुक्ति १४१ गाथा, चूर्णि २२२५ या २१६१ श्लोक परिमाण ब्रह्ममुनि कृत टीका ५१५२ श्लोक परिमाण है। दशाश्रुतस्कन्ध के प्रकाशित संस्करणों का उल्लेख किया गया है। आठवीं दशा पर्युषणाकल्प अथवा कल्पसूत्र 1 जैसा कि सुविख्यात है कि दशाश्रुतस्कन्ध की आठवीं दशा को ही उद्धृत कर प्रारम्भ में जिनचरित और अन्त में स्थविरावली जोड़कर कल्पसूत्र नाम प्रदान किया गया है। पर्युषण पर्व के अवसर पर इसका पाठ करने से इसकी महत्ता एवं प्रचार दोनों में आशातीत वृद्धि हुई है। फलतः कल्पसूत्र पर व्याख्या साहित्य भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है। इस पर लगभग ६० व्याख्याओं के लिखे जाने की सूचना उपलब्ध होती है। निर्युक्ति, चूर्णि और टिप्पणक, जो प्राचीन है और सम्पूर्ण छेदसूत्र की व्याख्या करते हैं, के अतिरिक्त चौदहवीं और अठारहवीं शताब्दी के मध्य ज्यादातर व्याख्या ग्रन्थों की रचना हुई है। इनकी सूची एच.डी. वेलणकर द्वारा संकलित जिनरत्नकोश (पृ. ७५- ७९ पर) में दी गई है, जो निम्न हैं दुर्गपदनिरुक्त (१२६८) विनयचन्द्र, सन्देहविषौषधि (१३०७) जिनप्रभ, खरतरगच्छीय, पजिंका - जिनसूरि, अवचूरि (१३८६ ) - जिन सागरसूरि. सुखावबोधविवरण जय सागरसूरि, (१५७१) - धर्मसागरगणि, अवचूरि (१९८७) - अमरकीर्ति, प्रदीपिका (१६५७ ) -- संघविजयगणि, दीपिका (१६२० ) -- जयविजयगणि, मंजरी (१६१८) सहजकीर्तिगण एवं श्रीमार, किरणावली कल्पलता ( १६१४) - शुभविजय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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