Book Title: Darshan Vishe Vicharna
Author(s): Trailokyamandanvijay
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 2
________________ १४४ अनुसन्धान-५६ गयो लागे छे; अने नवी व्यवस्थामां पण अलग-अलग व्यक्तिओ द्वारा थयेखें संकलन स्वाभाविक रीते थोडीक विविधता धरावे छे. अटले अत्रे दर्शावाशे ते दर्शनव्यवस्थाथी जूदं निरूपण पण कशेक उपलब्ध थइ शके छे.१ पण अत्यारे सौथी वधारे प्रचलित ज्ञान-दर्शननी व्यवस्था तो नीचे मुजब ज छे. ___ आत्मा सकल विश्वनी तमाम वस्तुओनो सम्पूर्ण बोध करवानी शक्ति धरावे छे, जे केवलज्ञानशक्ति तरीके ओळखाय छे. आत्मा ज्यां सुधी सम्पूर्ण शुद्धि नथी प्राप्त करतो, त्यां सुधी आ शक्ति कर्मने लीधे ढंकायेली रहे छे अने तेथी आत्मा तेनो उपयोग नथी करी शकतो. परन्तु, आ ज्ञानशक्ति अटली प्रबळ होय छे के जेथी गमे तेवं सबळ कर्म पण तेने सम्पूर्णतः ढांकी नथी शकतुं. अटले जेटला अंशे ओ शक्ति खुल्ली रही जाय, तेटला अंशे तेनो उपयोग करीने आत्मा बोध करी शके छे. केवलज्ञानशक्तिना आ खुल्ला रहेला अंशना, विषयक्षेत्र,उपयोगनां साधन व.ने लीधे चार प्रकार पडे छे : १. मतिज्ञानशक्ति (-पांच ज्ञानेन्द्रियो अने मन द्वारा बोध करवानी शक्ति) २. श्रुतज्ञानशक्ति (-सांभळीने के वांचीने बोध करवानी शक्ति) ३. अवधिज्ञानशक्ति (-इन्द्रिय अने मनथी निरपेक्षपणे, निश्चित मर्यादामा रहेला मूर्त पदार्थोनो बोध करवानी शक्ति) ४. मनःपर्यवज्ञानशक्ति (-बीजाना मनना विचारोने जाणवानी शक्ति). आ चारमाथी प्रथम बे ज्ञानशक्ति दरेक जीव पासे होय छे अने छेल्ली बे विशिष्ट कारणोथी ज मळी शके छे. अने पांचमी केवलज्ञानशक्ति तो सर्वथा निर्मल जीवने ज उपलब्ध थाय छे. बीजी तरफ, दरेक ज्ञेय वस्तु बे अंश धरावे छे : १. सामान्य अंशजेना द्वारा ओक वस्तु बीजी वस्तुओ साथे समानता धरावे छे. २. विशेष अंशजेना लीधे अक वस्तु बीजी वस्तुओथी अलग पडे छे. कोई पण वस्तुमां सामान्य अंशो तो घणा होय छे, पण अत्रे ते ज अन्तिम सामान्य अंशने ध्यानमां १. जेम के 'ज्ञान पूर्वे दर्शन अवश्य होय' अने ‘मतिज्ञाननी शरुआत व्यंजनावग्रहथी थाय' आ बे नियमोने जोइ अq पण समजाववामां आवे छे के 'दर्शन व्यंजनावग्रहनी पूर्वनो तबक्को छे.' पण व्यंजनावग्रहथी पूर्वे कोई ज्ञानमात्रा सम्भवती न होवाथी, आ वातने अनुचित जाणी अत्रे स्थान नथी आप्यु. "व्यञ्जनावग्रहप्राक्काले दर्शनपरिकल्पनस्य चाऽत्यन्तानुचितत्वात्, तथा सति तस्येन्द्रियार्थसन्निकर्षादपि निकृष्टत्वेनाऽनुपयोगत्वप्रसङ्गाच्च" -ज्ञानबिन्दु-पृ. ४६

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