Book Title: Chobis Tirthankar Author(s): Rajendramuni Publisher: University of Delhi View full book textPage 8
________________ इस विराट भूमिका का निर्वाह करने वाले इस अवसर्पिणी काल में केवल 24 महिमा सम्पन्न साधक हुए हैं और वे ही तीर्थंकरत्व की गरिमा से विभूषित हुए हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ का प्रतिपाद्य इन्हीं 24 तीर्थंकरों का जीवन-चरित रहा है। जैन इतिहास में यह वर्ष विशेष उल्लेखनीय रहेगा, जब भगवान महावीर स्वामी के 26 सौवें जन्मकल्याणक महोत्सव को समग्र राष्ट्र में उत्साह के साथ मनाया जा रहा है। भगवान के परम पुनीत जीवन का गहन अध्ययन करना, उनके सर्वजनहिताय सिद्धान्तों पर मनन कर उनके प्रति एक परिपक्व समझ विकसित करना, उनको आचरण में ढालना आदि कुछ ऐसे आयाम हैं, जिनके माध्यम से जन्म महोत्सव को सार्थकता दी जा सकती है। इस भावना के साथ ‘भगवान महावीर : जीवन और दर्शन' शीर्षक एक ग्रन्थ की रचना का साहस लेखक कर चुका था। तभी उसके मन में एक अन्य भावना अँगड़ाइयाँ लेने लगी कि वस्तुत: महावीर भगवान ने जो व्यापक जनकल्याण का अजस्र अभियान चलाया उसके पीछे उनकी समता, शक्ति और सिद्धियाँ तो थी ही, किन्तु उनके सामने एक विराट् अनुकरणीय आदर्श शृंखला भी रही थी। जहाँ स्वयं के ही जन्म-जन्मान्तरों के पुण्यकर्मों और श्रेष्ठ संस्कारों की शक्ति उन्हें प्राप्त थी, वहाँ एक सुदीर्घ समुज्ज्वल तीर्थंकर-परम्परा भी उनके सामने रही है। अत: समस्त तीर्थंकरों का चरित-चित्रण प्रासंगिक ही नहीं होगा, अपितु वह भगवान महावीर के चरित को हृदयंगम कराने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण पूरक भी सिद्ध होगा। कुछ इसी प्रकार की धारणा के साथ 24 तीर्थंकरों के जीवन चरित को विषय मानकर मैं प्रयत्न-रत हुआ, जिसने इस पुस्तक के रूप में आकार ग्रहण कर लिया है। मैं उनके जीवन की समग्र महिमा को उद्घाटित कर पाया हूँ-यह कथन मेरी दुर्विनीतता का द्योतक होगा। मैं तो केवल सतह तक ही सीमित रहा हूँ। मोतियों की गहराई तक पहुँच पाने का सामथर्य मुझमें कहाँ? मेरे इस प्रयास में श्रद्धेय गुरुदेव राजस्थानकेसरी अध्यात्मयोगी श्री पुष्कर मुनिजी एवं प्रसिद्ध जैन साहित्यकार गुरुदेव आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्र मुनिजी, मेरे ज्येष्ठ सहोदर श्री रमेश मुनिजी शास्त्री, काव्यतीर्थ का महत्त्वपूर्ण सहयोग रहा है। जिनकी अपार कृपादृष्टि से ही मैं प्रस्तुत ग्रन्थ लिख सका हूँ। इस ग्रन्थ में जो कुछ भी अच्छाई है वह सभी पूज्य गुरुदेवश्री का अपार कृपा का ही फल है। साथ ही प्रोफेसर श्री लक्ष्मण भटनागर जी को भी स्मरण किये बिना नहीं रह सकता। जिन्होंने प्रस्तुत पुस्तक में आवश्यक संशोधन व सम्पादन किया। -राजेन्द्र मुनि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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