Book Title: Chobis Tirthankar
Author(s): Rajendramuni
Publisher: University of Delhi

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Page 6
________________ को पूरा कर दिया। अब श्रेष्ठी ने अन्तिम आदेश दिया कि इस स्तम्भ पर चढ़ो और उतरो। तुम्हारा यह कार्य तब तक चलता रहना चाहिये, जब तक मैं तुम्हें अगला आदेश न दूँ। श्रेष्ठी तो अपनी स्वाभाविक मृत्यु पा गया, परन्तु वह दैत्य बेचारा अब भी स्तम्भ पर चढ़ने-उतरने के क्रम को सतत रूप से चला रहा है। भला यह काम भी कभी समाप्त हो सकता है? कुछ ऐसी ही स्थिति इस जगत में धर्म-भावना की भी है। वह विकसित होती है और पुन: संकुचित हो जाती है तथा पुन: विकासोन्मुख हो जाती है। इसका यह अजस्र क्रम भी असमाप्य है। विकास- हास की इस स्थिति को हम सर्प के आकार से भी समझा सकते है। पूँछ से फन तक का भाग निरन्तर स्थूल से स्थूलतर होता चलता है और फन से पूँछ की ओर निरन्तर सूक्ष्म से सूक्ष्मतर। पूँछ से फन की ओर और फन से पुन: पूँछ की ओर की यह क्रमिक यात्रा मानवीय गुणों द्वारा असंख्य वर्षों से होती चली आ रही है। पूँछ से फन की ओर वाली यात्रा 'उत्सर्पिणी काल' है जिसमें शारीरिक शक्ति और सद्मनोवृत्तियों, धर्मभावनाओं आदि में उत्तरोत्तर उत्कर्ष होता चलता है। और फन पर पहुँचकर पुन: पूँछ की ओर वाली यात्रा ‘अवसर्पिणी काल' है जिसमें इन गुणों में अपकर्ष होता चलता है। ये ही अवसर्पिणीकाल और उत्सर्पिणीकाल-दोनों मिलकर कालचक्र को रूपायित करते हैं। यह कालचक्र अबाध गति के साथ अनादि से ही संचालित है और इसका संचालन अनन्त काल तक होता भी रहेगा। यह काल-चक्र घड़ी के अंक-पट की भाँति है, जिस पर सुइयाँ 6 से 12 तक उन्नत होती चली जाती हैं और 12 से 6 तक की यात्रा में वे पुनः अवनत होती रहती हैं। 6 से 12 की यात्रा को उत्सर्पिणीकाल समझा जा सकता है और 12 से 6 की यात्रा को अवसर्पिणीकाल। सुइयों की यात्रा के इन दोनों भागों में जैसे 6-6 अंक होते हैं. वैसे ही इन दोनों कालों के भी 6-6 भाग हैं जो ‘आरा' कहलाते हैं। उल्लेखनीय एक अन्तर दोनों में अवश्य है कि घड़ी के ये सभी 12 विभाग सर्वथा समान हैं, किन्तु आरा-अवधियाँ अपने परिमाण में समान नहीं होतीं। किसी का काल कम है, तो किसी का अधिक। कालचक्र के इन उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दोनों कालों में से प्रत्येक के तीसरे और चौथे आरा में 24-24 तीर्थंकर होते हैं। धर्मभावना की वर्तमान उत्तरोत्तर क्षीणता इसकी स्पष्ट प्रमाण है कि इस समय अवसर्पिणी काल चल रहा है। इस काल का यह पाँचवा आरा है। इसके पूर्व के 2 आरा अर्थात् तीसरे और चौथे आरा में 24 तीर्थंकरों की एक परम्परा मिलती है। इस परम्परा के आदि उन्नायक भगवान ऋषभदेव थे और इसी आधार पर उन्हें ‘आदिनाथ' भी कहा जाता है। इसी परम्परा के अन्तिम और 24वें तीर्थंकर हुए है--भगवान महावीर स्वामी, जिनके सिद्धान्तों के तीव्र प्रकाश में आज भी भटकी हुई मानवता सन्मार्ग को खोज लेने में सफल हो रही है। 2600 वर्ष पूर्व प्रज्वलित वह ज्योति आज भी अपनी प्रखरता में ज्यों की त्यों है—तनिक भी मन्द नहीं हो पायी है। वस्तुत: भगवान महावीर स्वयं ही 'विश्व-ज्योति' हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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