Book Title: Chobis Tirthankar Author(s): Rajendramuni Publisher: University of Delhi View full book textPage 5
________________ लेखकीय संसार सदा एक ही गति और रूप से संचालित नहीं होता रहता-यह परिवर्तनशील है। 'परिवर्तन' प्रकृति का एक सहज धर्म है। हम अपने अति लघु जीवनकाल में ही कितने परिवर्तन देख रहे हैं? यदि आज भी किसी के लिए कुंभकरणी नींद सम्भव हो तो जागरण पर वह अपने समीप के जगत को पहचान भी नहीं पायेगा। जो कल था, वह आज नहीं है और जो आज है, वह कल नहीं रहेगा। ऐसी स्थिति में लाखों-करोड़ों वर्षों की अवधि में यदि 'क्या का क्या' हो जाय तो कदाचित् यह आश्चर्यजनक नहीं होगा। ये परिवर्तन उत्थान के रूप में भी व्यक्त होते हैं और पतन के रूप में भी। ह्रास और विकास दोनों ही स्वयं में परिवर्तन हैं। साथ ही एक और ध्यातव्य तथ्य यह भी है कि परिवर्तन के विषयों के अन्तर्गत मात्र बाह्य पदार्थ या परिस्थितियाँ ही नहीं आतीं, अपितु मानसिक जगत भी इसके विराट लीला-स्थल का एक महत्त्वपूर्ण किंवा प्रमुख क्षेत्र है। आचार-विचार, आदर्श, नैतिकता, धर्म-भावना, मानवीय दृष्टिकोण आदि भी कालक्षेप के साथ-साथ परिवर्तन प्राप्त करते रहते हैं। मानव की शक्ति-सामर्थ्य भी वर्धन-संकोच के विषय बने रहते हैं। श्रेष्ठ प्रवृत्तियों और मानवोचित सदादर्शों में कभी सबलता आती है तो वे अपनी चरमावस्था पर पहुँच कर पुन: अधोमुखी हो जाते हैं और इसके चरम पर पहुँच कर पुन: 'प्रत्यागमन' की स्थिति आती है। लोक कथाओं में एक प्रसंग आता है। किसी श्रेष्ठी पर एक दैत्य प्रसन्न हो गया और उसका दास बन गया। दैत्य में अद्भुत कार्य-शक्ति थी। उसने अपनी इस क्षमता का श्रेष्ठी के पक्ष में समर्पण करते हुए कहा कि मुझे काम चाहिए-एक के पश्चात् दूसरा आदेश देते रहिये। जब मुझे देने के लिए आपके पास कोई काम न होगा, तो मैं आपका वध करके यहाँ से चला जाऊँगा। प्रथम तो श्रेष्ठी बड़ा प्रसन्न हुआ। अभिलाषाओं की पारता से भी वह परिचित था। और जब प्रत्येक अभिलाषा इस प्रकार दैत्य द्वारा पूर्ण हो जाने की संभावना रखती है, तो श्रेष्ठी अपने सुख-साम्राज्य की व्यापकता की कल्पना में ही खो गया। परम प्रमुदित श्रेष्ठी ने एक के पश्चात् दूसरा आदेश देना आरम्भ कर दिया। दैत्य क्षणमात्र में कार्य सम्पन्न कर लौट आता। ऐसी स्थिति में श्रेष्ठी को अभिलाषाओं की ससीमता का आभास होने लगा। उसका ऐश्वर्य तो उत्तरोत्तर अभिवर्धित होने लगा, किन्तु समस्या यह थी कि वह दैत्य को आगामी आदेश क्या दे? उसकी कल्पना- शक्ति भी चुकने लगी। भय था कि आदेश न दिया गया तो दैत्य मेरी हत्या कर देगा। वह दैत्य द्वारा निर्मित स्वर्ण- प्रासाद में भी आतंकित था। उसे प्राणों का भय था और इस कारण समस्त सुखराशि उसे नीरस प्रतीत होती थी। जब अपनी सारी कल्पनाएँ साकार हो गयीं तो श्रेष्ठी ने दैत्य को एक आदेश दिया कि इस मैदान में एक बहुत ऊँचा स्तम्भ निर्मित कर दो। देखते ही देखते उसने इस आजा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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