Book Title: Chobis Tirthankar Author(s): Rajendramuni Publisher: University of Delhi View full book textPage 9
________________ प्रस्तावना भगवान महावीर की पूर्वकालीन जैन परम्परा धर्म और दर्शन धर्म और दर्शन मनुष्य जीवन के दो अभिन्न अंग हैं। जब मानव, चिन्तन के सागर में गहराई से डुबकी लगाता है तब दर्शन का जन्म होता है, जब वह उस चिन्तन का जीवन में प्रयोग करता है तब धर्म की अवतारणा होती है। मानव-मन की उलझन को सुलझाने के लिए ही धर्म और दर्शन अनिवार्य साधन हैं। धर्म और दर्शन दोनों परस्पर सापेक्ष है, एक-दूसरे के पूरक हैं। महान् दार्शनिक सुकरात के समक्ष किसी ने जिज्ञासा प्रस्तुत की कि शांति कहाँ है और क्या है? दार्शनिक ने समाधान करते हुए कहा, “मेरे लिए शांति मेरा धर्म और दर्शन है वह बाहर नहीं अपितु मेरे अन्दर है।" सुकरात की दृष्टि से धर्म और दर्शन परस्पर भिन्न नहीं अपितु अभिन्न तत्त्व है। उसके बाद यूनानी व यूरोपीय दार्शनिकों में धर्म और दर्शन को लेकर मतभेद उपस्थित हुआ। सुकरात ने जो दर्शन और धर्म का निरूपण किया वह जैनधर्म से बहुत कुछ संगत प्रतीत होता है। जैनधर्म में आचार के पांच भेद माने गये हैं।' उसमें ज्ञानाचार भी एक है। ज्ञान और आचार परस्पर सापेक्ष है। इस दृष्टि से विचार दर्शन और आचार धर्म है। पाश्चात्य चिन्तकों ने धर्म के लिए 'रिलीजन' और दर्शन के लिए 'फिलॉसफी' शब्द का प्रयोग किया है। किंतु धर्म और दर्शन शब्द में जो गम्भीरता और व्यापकता है वह रिलीजन और फिलॉसफी शब्द से व्यक्त नहीं हो सकती। भारतीय विचारकों ने धर्म और दर्शन को पृथक्-पृथक् स्वीकार नहीं किया है। जो धर्म है वही दर्शन भी है। दर्शन तर्क पर आधारित है ; धर्म श्रद्धा पर, वे एक- दूसरो के बाधक नहीं अपितु साधक हैं। वेदान्त में जो पूर्वमीमांसा है वह धर्म है और उत्तरमीमांसा है वह दर्शन है। योग आचार है, तो सांख्य विचार है। बौद्ध परम्परा में हीनयान दर्शन है तो महायान धर्म है। जैनधर्म में मुख्य रूप से दो तत्त्व हैं-एक अहिंसा, दूसरा अनेकांत। अहिंसा धर्म है और अनेकांत दर्शन है। इस प्रकार दर्शन धर्म है और धर्म दर्शन है। विचार में आचार और आचार में विचार यही भारतीय चिन्तन की विशेषता है। । स्थानाङ्ग. 5, उद्दे. 2, सूत्र 432. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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