Book Title: Chaudaha Gunsthan
Author(s): Shitalprasad, Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 9
________________ चौदह गुणस्थान भावार्थ - सम्यग्दृष्टि जीव का कर्त्तव्य है कि सात तत्त्व आदि को समझ कर उसमें भेद विज्ञान के द्वारा विचार करे तो विदित होगा कि सात तत्त्व व नौ पदार्थ - १. जीव और २. कर्म पुद्गल (अजीव ) के बन्धव मोक्ष की अपेक्षा से ही बने हैं। ३. कर्मों का आना आस्रव है । ४. कर्मों IIT बन्धन बन्ध है । ५. कर्म का रुकना संवर है । ६. कर्म का झड़ना निर्जरा है । ७. सर्व कर्मों का छूट जाना मोक्ष है । ८. पुण्य कर्म प्रकृति पुण्य है । ९. पाप कर्म प्रकृति पाप है। सब कर्म, पुद्गल होने से हेय है। एक शुद्धात्मा उपादेय है। छह द्रव्य व पाँच अस्तिकायों में भी एक शुद्ध जीव द्रव्य या जीव अस्तिकाय ग्रहण करने योग्य है। १४ आत्मा के स्वरूप का श्रद्धान, ज्ञान व चारित्र ही निश्चय रत्नत्रय है, आत्मानुभव रूप है, यही मोक्ष का मार्ग है; ऐसा सम्यक्त्वी समझता है। टंकोत्कीर्न अप्पा, दंसन मल मूढ़ विरय अप्पानं । (५) अप्पा परमप्पसरूवं सुधं न्यान मयं विमल परमप्पा ।। ६६२ ।। अन्वयार्थ – (टंकोत्कीर्ण अप्पा) टांकी से उकेरी हुई मूर्ति के समान अविनाशी स्वभाव से अमिट यह आत्मा है (दंसन मल मूढ़ विरय अप्पानं) दर्शन मोहनीय कर्म मल की मूढ़ता से रहित यह आत्मा है। (अप्पा परमप्प सरुवं) आत्मा परमात्म स्वरूप है (सुधं न्यान मयं ) शुद्ध ज्ञानमयी है (विमल परमप्पा) कर्ममल रहित परमात्मा है। भावार्थ सम्यग्दृष्टि, आत्मा को शुद्ध निश्चय नय के द्वारा ऐसा अनुभव करता है कि यह सदा रहने वाला है, त्रिकाल एकरूप द्रव्यस्वरूप है, द्रव्य का स्वभाव कभी मिटता नहीं। दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से जो मिथ्यात्वभाव होता है वह मिथ्यात्वभाव आत्मा में नहीं है। सम्यग्दर्शन आत्मा का स्वभाव है; जिससे इस आत्मा को अपने आत्मा के सच्चे स्वरूप की यथार्थ प्रतीति होती है। यह आत्मा निश्चय से परमात्मस्वरूप है, शुद्ध है, ज्ञानमयी है, वीतराग है, कर्ममल रहित, निरंजन, स्वयं व परमात्मरूप ही है। (9) भूमिका १५ रूव भेय विन्यानं, नय विभागेन सदहं सुधं । ( ६ ) अप्प सरूवं पेच्छदि, नय विभागेन सार्धं दिट्टं ॥ ६६३ ॥ अन्वयार्थ - (भेय विन्यानं) भेद विज्ञान (नय विभागेन सुधं रूव सहं ) निश्चय नय के द्वारा पर से स्वरूप का श्रद्धान रखता है (नय विभागेन सार्धं दिट्ठ) नय विभाग के साथ जो निर्मल दृष्टि है वह (अप्प सरुव पिच्छदि) आत्मा के स्वरूप को यथार्थ देखती है। भावार्थ - जैन सिद्धान्त में निश्चयनय तथा व्यवहारनय के द्वारा आत्मा को जानने का उपदेश है। व्यवहारनय पर्यायदृष्टि है, नैमित्तिक अवस्था या भावों को आत्मा की है, ऐसा बताने वाली है। इसलिए यह नय अभूतार्थ है असत्यार्थ है । द्रव्य का सत्य निजस्वरूप नहीं बताती है, जबकि निश्चय नय द्रव्य दृष्टि है। द्रव्य के मूल स्वरूप को अर्थात् उसके स्वभाव को पर से भिन्न बताने वाली है। व्यवहार नय से देखने पर यह आत्मा वर्तमान में अशुद्ध है, रागीद्वेषी है, कर्म मल सहित है, ऐसी झलकती है। निश्चयनय से यह आत्मा शुद्धज्ञान-दर्शनस्वरूप है, वीतराग है, विकार रहित है, परमानन्द स्वरूप है, परमात्मरूप है। दोनों नयों से पदार्थ को जानकर निश्चय नय के द्वारा आत्मा को अनात्मा से भिन्न जानना भेद विज्ञान है । जैसे धान्य को निश्चय नय से देखने पर चांवल अलग भूसी अलग दिखलाई देगी। गंदे जल को देखने से जल अलग व मिट्टी अलग दिखलाई देगी। तिलों में तेल अलग व छिलका अलग दिखलाई देगा। इसी तरह अपने ही आत्मा को देखने से निश्चयनय आत्मा को अलग और कर्मों को व शरीर को अलग दिखलाएगा। इस तरह जो भेद विज्ञान से अपने आत्मा को शुद्ध देखता है, श्रद्धान करता है तथा अनुभव करता है, वही सम्यग्दर्शन का धारी है। ...

Loading...

Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27