Book Title: Chaudaha Gunsthan
Author(s): Shitalprasad, Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 23
________________ ४२ क्षीणमोह गुणस्थान चौदह गुणस्थान शुद्ध परमात्म स्वभाव में लीनता रूप शुक्लध्यान के धारी हैं (क्षिउ उवसम संसुधो) क्षायिक या द्वितीयोपशम सम्यक्त्व सहित है (न्यान सहावेन तवयरनं चरन्ति) ज्ञान स्वभाव में तिष्ठकर निश्चय तपश्चरण कर रहे हैं। भावार्थ - उपशांत मोह भाव के धारी निग्रंथ साधु निर्मल श्रुतज्ञान के धारी होकर अपने शुद्ध स्वभाव में लीन होते हुए शुक्लध्यान को ध्याते हैं। आत्मा के स्वभाव में वीतरागता सहित तपश्चरण या रमण कर रहे हैं। श्री गोम्मटसार में कहा है - ____ “निर्मली फल सहित जल की तरह या शरद ऋतु में सरोवर के पानी की तरह जहाँ सर्व मोह का उपशम हो गया है, ऐसे वीतराग परिणाम के धारी के उपशान्त कषाय गुणस्थान होता है। जैसे कतकफल से मिट्टी नीचे बैठ जाती है पानी ऊपर निर्मल है या शरद ऋतु में मिट्टी नीचे बैठ जाती है, ऊपर सरोवर का पानी निर्मल होता है। वैसे जहाँ मोह का उदय दबा हुआ है, ऊपर भाव मोह रहित है, सो उपशान्त मोह गुणस्थान है।" अनंत क्षीणता को प्राप्त घातिया कर्मों के मल को छुड़ा रहे हैं; वे क्षीणमोह गुणस्थानधारी हैं। ___ भावार्थ - क्षपक श्रेणी पर चढ़ने वाला साधु दसवें गुणस्थान के अन्त में सूक्ष्म लोभ का भी क्षय करके सर्व मोहनीय कर्म की वर्गणाओं से रहित होकर के इस गुणस्थान में आकर पूर्ण वीतराग हो जाता है और दूसरे शुक्लध्यान को ध्याता हुआ एकत्ववितर्क अविचार परिणति से ध्यानमग्न हो जाता है। इस शुक्लध्यान के अन्तर्मुहूर्त चलने से ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातिया कर्मों का बल क्षीण होता चला जाता है। जब तीन घातिकर्मों का बिल्कुल क्षय हो जाता है तब तेरहवाँ गुणस्थान प्रारंभ हो जाता है। क्षय करने की क्रिया इसी गुणस्थान में होती है। मन पर्जय उववन्नं, धम्म सुक्कं च निम्मलं रूवं।(४२) रूवातीत सहावं, न्यान सहावेन अप्प परमप्पं ।।७०० ।। अन्वयार्थ - (मन पर्जय उववन्न) कोई-कोई साधु मनःपर्ययज्ञान के धारी होते हैं (धम्म सुक्कं च निम्मलं रूवं) वे पहले निर्मल आत्म स्वरूप धर्मध्यान को सातवें गुणस्थान तक फिर आठवें से शुक्लध्यान को ध्याते हुए इस गुणस्थान में आते हैं (रूवातीत सहावं) यहाँ अमूर्तिक आत्मा के स्वभाव में लीन हैं (न्यान सहावेन अप्प परमप्पं) ज्ञान स्वभाव में तिष्ठकर आत्मा को परमात्मरूप ध्याते हैं। भावार्थ - किन्हीं साधुओं को मतिश्रुत दो ही ज्ञान होते हैं और बारहवें में चढ़ जाते हैं। कोई मतिश्रुतअवधि तीन ज्ञानधारी, कोई मनःपर्ययज्ञान सहित चार ज्ञानधारी होकर यहाँ आते हैं। ___ पहले निर्मल धर्मध्यान किया था उसी के बल से यहाँ निर्मल शुक्लध्यान को ध्या रहे हैं। दूसरा शुक्लध्यान अति निश्चल है, जिसके प्रताप से बिलकुल थिर आत्मा में लीन हैं। श्री गोम्मटसार में कहा है - (१२ क्षीणमोह गुणस्थान क्षीन कषायं उत्तं, क्षीनं घाय कम्म मल मुक्कं ।(४१) क्षीयंति क्षीन मोहो, न्यान सहावेन संजुत्त तवयरनं ।।६९९ ।। अन्वयार्थ - (क्षीन कषायं उत्तं) अब क्षीण कषाय के बारहवें गुणस्थान को कहते हैं जहाँ (क्षीन मोहो क्षीयंति) सूक्ष्म मोह भी नष्ट हो गया है (न्यान सहावेन तवयरनं संजुत्त) जो ज्ञान स्वभाव में तिष्ठकर शुद्ध आत्मतपनरूप तपश्चरण करते हैं (क्षीनं घाय कम्म मल मुक्कं) तथा जो (23)

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